ऋषि अष्टावक्र
ऋषि अष्टावक्र……………..
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उद्दालक ऋषि ने अपने प्रिय शिष्य कहोड़ के साथ अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कर दिया था.
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एक बार जब सुजाता गर्भवती थी और कहोड़ वेद पाठ कर रहे थे. वह बार-बार उच्चारण में चूक कर रहे थे.तभी सुजाता के गर्भ से आवाज़ आई-
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“आपका उच्चारण अशुद्ध है”. यह सुनते ही कहोड़ कुपित हुए. उन्होंने पूछा कि कौन है जो मेरे उच्चारण को चुनौती दे रहा है, मेरे समक्ष प्रकट हो.
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फिर से आवाज आई- पिताजी में आपका अंश हूं जो माता के गर्भ में स्थित हूं. आप जैसे ज्ञानी के मुख से अशुद्ध उच्चारण सुनकर मैंने टोका.
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कुपित होकर कहोड़ ने शाप दिया- तू जन्म से पूर्व ही मीनमेख निकालने लगा है. तेरे आठ अंग टेढ़े हो जाएंगे.
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कहोड़ शास्त्रार्थ से धन प्राप्ति की इच्छा के साथ राजा जनक के दरबार में पहुंचे.
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जनक के राजपुरोहित बन्दी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते और हारने वाले को जल में डुबोकर मार डालते. बंदी ने कुतर्कों से कहोड़ को पराजित कर दिया और पानी में डुबाकर मार डाला.
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शाप के प्रभाव से कहोड़ को आठ स्थानों से टेढ़े अंगों वाला पुत्र जन्मा. इसलिए उसका अष्टावक्र नाम पड़ा.
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कहोड़ की मृत्यु के बाद पुत्री सुजाता अपने बेटे अष्टावक्र को लेकर पिता के आश्रम में आ गई. अष्टावक्र के हाथ-पैर टेढ़े-मेढ़े थे, कद नाटा था, पीठ पर कूबड़ निकला था, चेहरा भद्दा था पर मां सुजाता का वही एक आसरा था.
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अष्टावक्र शरीर से भले बेढंगे थे, पर बुद्धि बड़ी तीव्र थी. अपनी तीव्र बुद्धि के कारण उसने थोड़ी ही उम्र में वेद-शास्त्रों तथा धर्म-ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन कर लिया.
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एक दिन अष्टावक्र अपने नाना की गोद में बैठा था तभी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु आया.
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श्वेतकेतु बोला- अष्टावक्र, तू यहां से हट. अपने पिता की गोद में मैं बैठूंगा. यह मेरे पिता हैं, तू अपने पिता की गोद में जाकर बैठ.
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अष्टावक्र तो उद्दालक को ही पिता मानता था. उसे पहली बार पता चला कि उसके पिता नहीं हैं और अपनी मां से पिता के बारे में पूछने लगा.
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सुजाता को हारकर सब बताना पड़ा. अष्टावक्र ने निश्चय किया कि पिता को छल से मारने वाले मूर्ख को सबक सिखा कर रहेगा.
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वह उद्दालक के पास पहुंचे और राजा जनक के दरबार में जाकर बन्दी से शास्त्रार्थ करने की आज्ञा मांगी.
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महर्षि बोले- अभी तुम्हारी शिक्षा पूरी नहीं हुई है. तुम्हारे शरीर तथा आयु को देखते हुए तुम्हें जनक के दरबार में कोई घुसने भी न देगा, शास्त्रार्थ तो दूर की बात है. परंतु अष्टावक्र अडिग रहे.
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अष्टावक्र मां तथा गुरु की आज्ञा लेकर चल पड़े. जब वह नगर में पहुंचे तो संयोगवश महाराजा जनक उसी राजमार्ग से आ रहे थे. राजा की सवारी के आगे चलने वाले नौकरों ने राह बनाने के लिए अष्टाव्रक को धकेल दिया.
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अष्टावक्र बोले- मार्ग पर चलने की प्राथमिकता अन्धे, बहरे, स्त्री, अपंग, असहाय तथा भारवाही व्यक्तियों को दी जानी चाहिए. राजा को अपने लिए ऐसी प्रथम सुविधा नहीं लेनी चाहिए.
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राजा जनक अष्टावक्र की बातें सुन लीं. उन्हें लगा कि यह बालक ठीक ही कह रहा है. उसे रास्ते से हटाये बिना वह एक किनारे से आगे बढ़ गए.
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अष्टावक्र जनक के महल पर पहुंचे. राजमहल के द्वार पर द्वारपाल ने उसे रोककर पूछा कि वह कौन है और क्यों अन्दर जाना चाहता है ?
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अष्टावक्र ने अपना परिचय तथा आने का कारण बताया. सुनकर द्वारपाल बोला- अभी तुम बालक हो. यज्ञ-वेदी पर वेद-पाठ करने की बजाय, किसी आचार्य के आश्रम में जाकर अध्ययन करो.
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अष्टावक्र ने ऊंची आवाज में कहना शुरू किया. ‘‘ज्ञान का उम्र से क्या सम्बन्ध ! मेरी उम्र भले ही कम है, लेकिन मैंने शास्त्रों का अध्ययन किया है. शरीर से मैं कुरूप हूं, परंतु शरीर से कुरुप होने का अर्थ बुद्धि से कुरूप होना नहीं है.
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सेमल का वृक्ष बड़ा हो जाने पर भी शक्तिशाली नहीं होता. आग की छोटी-सी चिंगारी में भी किसी को जला देने की वैसी ही ताकत होती है जैसी आग के बड़े अंगारे में.
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उम्र से विद्वता का कोई संबंध नहीं. तुम मेरे आने की सूचना महाराजा जनक को दो.
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जनक ने अष्टावक्र को राजदरबार में बुला लिया. अष्टावक्र की उम्र तथा टेढ़े-मेढ़े अंगों को देख कर सब दरबारी हँसने लगे. उन्हें हँसता देख अष्टावक्र भी बड़े जोर से हंस पड़े.
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राजा जनक ने उत्सुकता से पूछा- ब्राह्मण देवता ! आप क्यों हंस रहे हैं ?
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अष्टावक्र बोले- मैं तो यह समझकर आया था कि यह विद्वानों की सभा है और मैं बन्दी से शास्त्रार्थ करूंगा, पर मुझे लगता है कि मैं मूर्खों की सभा में आ गया हूं.
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मैंने अपने हंसने का कारण बता दिया, अब आप अपने मूर्ख दरबारियों से पूछें कि वे किस कारण हंसे ?
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अपनी इस शारीरिक दशा का कारण मैं नहीं. कारण तो वह कुम्हार यानी ईश्वर है, जिसने मुझे ऐसा बनाया. किस पर हंसे ये मूर्ख ?
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जनक लज्जित हो गए. उन्होंने अष्टाव्रक को आसन दिया और कहा, मुझे तथा मेरे दरबारियों को क्षमा करें. अभी आप बन्दी से शास्त्रार्थ करने की आयु के नहीं हैं. शास्त्रार्थ में हारने वाले को जल-समाधि लेनी पड़ती है. अभी आप और अध्ययन करें.
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अष्टाव्रक शास्त्रार्थ की जिद पर अड़े रहे. शास्त्रार्थ शुरू हुआ और जल्द ही बन्दी हार.गया. शर्त के अनुसार स्वयं जल-समाधि लेने के लिए तैयार हो गया.
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अष्टावक्र ने कहा- बन्दी ! मैं ऋषि काहोड़ का पुत्र हूं. तुमने कुतर्कों से उन्हें पराजित कर जल-समाधि दे दी थी. मैं भी तुम्हें शर्त के अनुसार जल-समाधि दे सकता हूं, पर मैं वैसा करूँगा नहीं.
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जीवन लेना सहज है, पर जीवन देना बड़ी बात है. ज्ञान मानवता के विकास के लिए होना चाहिए, न कि उसको नष्ट करने के लिए. मुझे यह वचन दो कि इस प्रकार गर्व में आकर किसी का जीवन नष्ट नहीं करोगे.
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बन्दी का घमण्ड चूर-चूर हो गया था. जनक के चरणों में गिरकर बोला- मैं वरुण का पुत्र हूं. बारह वर्षों में पूर्ण होने वाले एक यज्ञ का अनुष्ठान मेरे पिता ने किया था.
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उस यज्ञ के लिए जरूरी कुछ विद्वानों का चयन करके मैंने जल में डूबोकर वरुण लोक भेजा. अनुष्ठान पूर्ण हो चुका है. वे सभी विद्वान अब वापस आ रहे हैं. मैं अष्टावक्र को प्रणाम करता हूं जिनके कारण मेरे पिता से भेंट होगी.
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उसी समय वरुण के यज्ञ में गए सभी ब्राह्मण राजा जनक के समीप प्रकट हुए. उसमें कहोड़ भी थे. अष्टावक्र अपने पिता के साथ दरबार से विदाई लेकर चल पड़े.
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रास्ते में समंगा नदी पड़ी. कहोड़ ने अष्टावक्र से कहा- पुत्र तुम इस नदी में स्नान करो. अष्टावक्र स्नान कर बाहर निकले तो उनके सारे अंग ठीक हो गए थे. कहोड़ ने वरूण के यज्ञ से अर्जित पुण्यों के बल पर पुत्र को स्वस्थ कर दिया
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