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Rajni

साधना क्यों आवश्यक है?

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साधना क्यों आवश्यक है?
क्योंकि शरीर की भाँति मन के भी तत्वों के विलोड़न से यह सब होता है। इस होते रहने को साक्षी भाव से देखने की क्षमता सध जाए तो विकार क्षीण हो जाएँगे। जीवन में तीन तत्वों की प्रधानता है : जिन्हें बल, गुण और भाव कहा जाता है। बल की आकांक्षा रखने वाले सामान्यतः भौतिक जीवन जीते हैं।

        जीव के लिए, मनुष्य के लिए बहुत ही कम चीज़ उसके भीतर में मौजूद है, उसे बाहर ही दौड़ना पड़ता है उसे पाने के लिए, उसे जानने के लिए। अवश्य ही यह सही उपलब्धि, सही ज्ञान तो नहीं है कि उसे पाने के लिए ...जानने के लिए बाहर दौड़ना पड़े, यही उसकी कमी है। और इसी कमी से बचने के लिए उन्हें क्या करना पड़ता है?.....

        असम्पूर्णता से सम्पूर्णता की ओर चलना पड़ता है। यह जो असम्पूर्णता (अज्ञात) से सम्पूर्णता (ज्ञात) की ओर चलना, इसी चलने के प्रयास को आध्यात्मिक साधना' कहते हैं। इसे करने से क्या होता है?

         परमपुरुष का भाव लेने से मानव मन भी परमात्मा के जैसा विस्तार को प्राप्त करता है। यह मन की विशेषता है कि वह जैसा भाव लेता है वह उसी का रूप ले लेता है। ऐसी ही विशेषता परमात्मा की भी है कि जो भी उनका भाव लेता है वह उनकी ही तरह हो जाता है। प्रत्येक चीज का, जैसे जल, अग्नि, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन इत्यादि की अपनी विशेषता है, इसलिए परमपुरुष की यह विशेषता है कि जो उनका भाव लेता है उनकी कृपा से वह भी उनके जैसा विस्तार प्राप्त कर लेता है। शास्त्र में कहा गया है- "वृहत्वाद ब्रह्म वृहणत्वाद ब्रह्म"। ब्रह्म शब्द का अर्थ है अत्यन्त बड़ा। क्या वे सिर्फ बडे हैं? नहीं, वे अपने आप में बडे हैं और दूसरों को भी बड़ा बना सकते हैं, इसलिए उन्हें ब्रह्म ' कहा जाता है। जब उनका भाव लेते हुए मानव मन परमपुरुष के जैसा ही हो जाता तब उनके साथ एक हो जाता है, उनमें मिल जाता है। तब वह निरन्तर उनके भाव में ही रहता है।

        यदि कोई साधना नहीं करता है, तब क्या होगा? उसकी दूरी परमपुरुष से बढती जायेगी। वह परमपुरुष से दूर हो जायेगा। यह पशुता का मार्ग है। तुम लोगों को ऐसे किसी आदर्श या दर्शन का समर्थन नहीं करना चाहिए, जो मनुष्य को पशुता की ओर ले जाता है। तुम्हारा पथ अध्यात्म का है। तुम्हें मानव शरीर का उपहार मिला है। शत-प्रतिशत मनुष्य बनो और परमपुरुष से अपनी निकटता बढाते जाओ और अन्त में उनके साथ मिलकर एक हो जाओ।

         तुमलोगों को हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि तुमलोग परमपुरुष की सन्तान हो और उनके साथ एक हो जाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है तुम्हें इस जन्मसिद्ध अधिकार से कोई भी वंचित नहीं कर सकता। अत: जाने अथवा अनजाने, सचेतन अथवा अचेतन तुम्हें उनकी तरफ चलना ही चाहिए और उनके साथ एक हो जाना चाहिए। मानवता का यही पथ है, यही वह बात है, जो पशु से मनुष्य को अलग करती है।

         जिनमें आध्यात्मिक साधना नहीं हैं, बुढ़ापे में वे कहते है “अब मरना ही अच्छा है। जिनमें आध्यात्मिक साधना नहीं है कम उम्र में मन पर अधिक चोट लगने से अथवा चोट लगने की शंका रहने से मनुष्य खुदकुशी कर बैठते हैं, आत्महत्या कर बैठते हैं क्योंकि higher persuits नहीं है। मन में नीरसता (monotony)आ जाती है, Applied psychology में ऐसा ही कहूंगा। इस नीरसता से बचने का उपाय क्या है? मन को एक ऐसा विषय, मन के objective counterpart में एक ऐसा विषय चाहिए जो की अनन्त हो अर्थात जिस के सम्पर्क में आने से मनुष्य के मन में कभी भी किसी भी हालत में नीरसता नहीं आएगी -हमेशा नया, नवीन, नवीनतर, नवीनतम। परमपुरुष एक ऐसी सत्ता है जो हमेशा नूतन है, हमेशा नवीन है। इसलिए जीवन की नीरसता से बचने के लिए,

        आध्यात्मिक साधना हर इन्सान का कर्तव्य है। रूहानी तरक्की के लिए तो कर्तव्य अवश्य ही है। जीवन की नीरसता से बचने के लिए भी यह कर्तव्य है। अर्थात् साधना

मनुष्य जीवन का अपरिहार्य अंग है। जिसे यम-नियम के साथ किया जाता है।🧘🏽‍♂️

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