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कवि जवाहरलाल जलज के ताजा कविता संग्रह ~ “रहूँगा तब तक इसी लोक में” की विस्तृत चर्चा

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कवि जवाहरलाल जलज के ताजा कविता संग्रह ~ “रहूँगा तब तक इसी लोक में” की विस्तृत चर्चा ••••
● “रहूँगा तब तक इसी लोक में”~ जवाहरलाल जलज का दूसरा काव्य संग्रह है। उनका पहला काव्य संग्रह था~ “रहूँगा इन्हीं शब्दों के साथ”। जलज जी के दोनों काव्य संग्रहों में “रहूँगा” शब्द की आवृत्ति है। मानो इस शब्द के प्रयोग में उनकी कोई जिद या मोह है अथवा कोई आस्था।
● वस्तुतः जवाहरलाल जलज बाँदा के हैं। हालाँकि इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह रेखांकित करना भी बहुत जरूरी है कि जलज जी बाँदा के जनकवि केदारनाथ अग्रवाल के गाँव कमासिन के ही निवासी हैं, तो स्वाभाविक है कि वे बचपन से ही केदार बाबू के सानिध्य में रहे और वयस्क होने तक एवं साहित्यिक समझ पैदा होने तक अनवरत उनके साथ रहे। उनसे सीखा-समझा और कविताई की शुरुआत की। तथा कविता लिखते-लिखते अपने को इस योग्य बनाया कि उनके स्वयं के कविता संग्रह प्रकाश में आने लगे।
● चूँकि, जैसा कि जग जाहिर है कि, केदारनाथ अग्रवाल सघन आस्था के कवि हैं। जीवन और मनुष्यता में उनकी अगाध आस्था है। जैसा कि केदार बाबू स्वयं उद्घोषित करते हैं ~ “मैं हूँ अनास्था पर लिखा आस्था का शिलालेख ••••”। स्वाभाविक है कि बहुत लंबे समय तक ऐसे आस्थावान कवि के सानिध्य में रहने वाले हर सचेतन प्राणी में आस्था के ये गुण पनपते रहें। यही जलज जी के साथ हुआ। केदार बाबू के साथ होने से जीवन के प्रति उनकी आस्था भी दिन ब दिन प्रगाढ़ होती रही है और “रहूँगा” जैसे शब्द से उनका लगाव हो गया। यहाँ “रहूँगा” शब्द का अर्थ यूँ समझा जाए कि अपने अस्तित्व के साथ रहूँगा और जीवन पर्यंत संघर्षरत रहूँगा।
● ऐसा कहकर हम जलज जी को केदार बाबू के उत्तराधिकारियों की पंक्ति में बिठाने की कोई जल्दबाजी नहीं कर रहे। यह तो आगे चलकर उनका कृतित्व और व्यक्तित्व प्रमाणित करेगा।
हालाँकि उत्तराधिकारी की सूची में वही लोग आते हैं, जो उस धरती से जुड़े होते हैं और उस विरासत से जुड़े होते हैं। जैसे केदार बाबू के प्रथम दो शिष्य बाँदा के और केदार बाबू के आसपास के ही थे, जिनका उल्लेख जनकवि नागार्जुन ने बाँदा आने पर अपनी कविता में बहुत पहले कर दिया था ~ ” शिष्य तुम्हारे इकबाल, मुरारी/ शब्द शिकारी।” यहाँ इकबाल यानी इकबाल बहादुर श्रीवास्तव उर्फ अजित पुष्कल और मुरारी यानी कृष्ण मुरारी पहारिया हैं। इन दोनों शिष्यों के बहुत बाद केदार बाबू के जो दो नये शिष्य के रूप में उभर कर सामने आए, वे हैं ~ गोपाल गोयल ( बकलमखुद ) और जयकांत शर्मा, जिन्हें छह फीट लंबे होने के कारण केदार जी “मेरी दो सारस” कहकर संबोधित करते थे और उनकी चर्चा केदार बाबू ने अपने साहित्य में खूब की है।
● खैर विषयान्तर से बचने के लिए हम मूल बिंदु पर आते हैं कि जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की दीर्घकालीन परंपरा के उत्तराधिकारी कवियों की पंक्ति में आसीन जवाहरलाल जलज की कविताओं की यदि चर्चा, विवेचना तथा समीक्षा की जाए, तो स्पष्ट दिखता है कि उनके संपूर्ण सृजन में केदारनाथ अग्रवाल के कृतित्व और व्यक्तित्व की गहरी छाप है। उनके इस नवीनतम कविता संग्रह का शीर्षक भी केदार बाबू की आस्था से जुड़ा है। केदार बाबू गहरी आस्था और संघर्ष के कवि हैं। वही छाया जलज जी में पल-पल दिखती है। जलज ने अपने कविता संग्रह के “आत्मकथ्य” शीर्षक में खुलासा किया है कि~ “शुरू से ही मेरे पाँवो में मुसीबतों और दुर्भाग्य की मजबूत बेड़ियाँ जकड़ी रही हैं। फिर भी मैं मुश्किलों के गगनचुंबी पहाड़ चढ़ने की चाह को जिंदा बनाए रहा हूँ •••• मैं इस लोक से कभी विस्थापित नहीं होना चाहता हूँ।”
● कवि जलज को उपरोक्त प्रेरणा और आस्था मिलती है, केदार बाबू की इस कविता से~ “खड़ा पहाड़ चढ़ा मैं/ अपने बल पर / ऊपर पहुँचा/ मैं नीचे से चलकर / पकड़ी ऊँचाई/ तो आँख उठाई/ कठिनाई अब/ नहीं रही कठिनाई।” (अपूर्वा)
● स्पष्ट है कि केदार बाबू की कविता कवि जलज को कितना बड़ा संबल दे रही है। “रहूँगा तब तक इसी लोक में” शीर्षक कविता के कुछ अंश प्रस्तुत करके हम कवि जलज के कविता संग्रह की विवेचना को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं:~ “जब मेरे / भौतिक शरीर के / मानसरोवर को/ छोड़कर / अचानक ही / उड़ जाएगा / मेरे प्राणों का हंस/ हो जाएगा / ब्रह्मांड में विलीन/ तब भी मैं / नहीं हो सकूँगा/ अपनी प्यारी / धरती से / सदा के लिए / बिछुड़ जाने को मजबूर/ वह इसलिए कि / प्राण रहित / मेरी काया/ हो जाएगी / परिवर्तित / मिट्टी के रूप में / मैं मिल जाऊँगा/ पूरी तरह से / वसुंधरा की देह में / •••••••• मैं तनिक भी /इस सुंदरतम / भूलोक से / नहीं हिलूँगा / रहूँगा तब तक इसी लोक में।”
● जीवन के प्रति यह प्रगाढ़ आस्था कवि जलज कहाँ से पाते हैं ? निश्चय ही जनकवि केदार से, लेकिन कवि जलज की विनम्रता भी तो देखिए कि वे अपने आत्मकथ्य में या अन्यत्र कहीं भी “केदारनाथ अग्रवाल” नाम की बैसाखी का सहारा नहीं लेते। उनके पूरे आत्मकथ्य में केदार बाबू के कृपा पात्र होने का या केदार बाबू के उत्तराधिकारी होने का कोई दंभ नहीं है। यूँ दैनिक जीवन में, जिसके हम भी साक्षी हैं, केदार बाबू की स्मृति के बिना कवि जलज एक पग भी नहीं चलते। दूसरी तरफ यह भी सच है कि जब कभी केदार बाबू को अपना गाँव कमासिन याद आता था, तो वे सिर्फ जवाहरलाल जलज के साथ ही जाते थे। अर्थात जलज उनके सबसे निकट और विश्वसनीय थे।
● जलज की एक और कविता देखिए:~ “देवताओं को भी / दुर्लभ / इस अनुपम/ भूलोक में / दुनिया का / कालकूट भी पी पीकर / मैं चाहता हूँ / जीवन को / जीना / किंतु मैं नहीं चाहूँगा/ एक पल भी / जीवित रहना/ मनुष्यता की / अमूल्य मणि को / खोकर / और / सत्य के साथी से बिछुड़ कर।”
● अब कवि जलज की इस कविता में केदार बाबू की कविता का प्रतिबिंब देखिए:~ “जिऊँगा लिखूँगा/ कि मैं जिंदगी को / तुम्हारे लिए और अपने लिए भी / अनूठी मिली एक निधि मानता हूँ•••••••।”
● जलज कवि अलग-अलग रंग की रचनाएँ रचते हैं, लेकिन केदार और केदार के प्रिय लेनिन की नसीहतों को नजरअंदाज नहीं करते। संपूर्ण सुरक्षा के साथ अपनी बात जन-जन तक पहुँचाना, यही तो जरूरी काम है। पत्थरों पर सिर पटक कर आत्महत्या करने से बेहतर है कि अपने को सुरक्षित रखते हुए संघर्ष किया जाए। कवि जलज की “सुनते रहिए” कविता हजारों प्रकार के आंदोलनों और संघर्षों का एक दस्तावेज है:~ “जो भी / हो रहा है / होने दो फकीर / बस सुनते रहिए / उनके ही / मन की बात / क्योंकि / समय में तो / उनको ही / सुनते ही रहने की / स्वतंत्रता है / किसी अन्य को / अपनी व्यथा कथा / सुनाने की नहीं ••••••।”
● कवि जलज कितने सजग हैं, इसका प्रमाण उपरोक्त कविता है। इस कविता में लेनिन की नसीहत साफ झलकती है~ “एक कदम आगे, दो कदम पीछे।”
● कवि जलज की एक अन्य कविता “जिऊँगा जिंदगी भरपूर” को पढ़िए:~ “यथार्थता की ही/ भूमि पर रहकर/ विचारों की/ वाटिका को/संवेदना का/ जल पिलाकर/ खिलाता रहूँगा/ लोकधर्मी/ सर्जनाओं के/ फूल। / हटाता रहूँगा/ जीवन की पगडंडी के शूल। / बुलाता रहूँगा/ नैराश्य के/ आकाश में/ आशाओं के घन। •••• तानता रहूँगा/ चेतना का वितान। / साधता रहूँगा/ सब दिन सही/ प्रतिरोधात्मकता की/ कमान। ••••••/ किन्तु तब भी/ टूटने नहीं पाएगा/ फूटने नहीं पाएगा/ होने नहीं पाएगा/ जीवन का दर्पण/ चकनाचूर। / बचूँगा जरूर/ जिऊँगा जिन्दगी भरपूर।”
● कवि जलज की इस कविता में भी जनकवि केदार की आस्था प्रवृत्ति पुनः दृष्टिगोचर होती है। केदार बाबू की कविता देखिए:~ “शक्ति मेरी बाहु में है/ शक्ति मेरी लेखनी में।/ बाहु से, निज लेखनी से/ तोड़ दूँगा मैं शिलाएँ •••••।”
● हमारे इसी कथन पर अपनी सशक्त मोहर लगाते हैं, तल्ख, जुझारू तथा ईमानदार युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार। जलज जी के इस कविता संग्रह की भूमिका में “लोकधर्मी काव्य रीति के सशक्त उदाहरण” शीर्षक के अंतर्गत परमार जी द्रढता के साथ लिखते हैं कि:~” जवाहरलाल जलज केन और केदार की धरती के अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने कवि होने की सरोकारपूर्ण शर्तों का ईमानदारी से निर्वहन किया है। अपने प्रथम संग्रह “रहूँगा उन्हीं शब्दों के साथ” से ही जवाहरलाल जलज ने जनपद के छद्म प्रगतिशील साहित्यिक अवसरवादियों के लिए नई चुनौती पेश कर दी। वे इस कविता संग्रह के माध्यम से यह संदेश देने में बेतरह सफल रहे कि मेरी काव्य यात्रा का उत्स वही ध्वनि है, वही शब्द है, जिनका उद्घोष बाबू केदारनाथ अग्रवाल ने किया था। जवाहरलाल जलज ने केदार की लोकधर्मी परंपरा को पुनः पदस्थ किया और नए समय के नए मानदंडों के अनुरूप तमाम वैचारिक निष्कर्षों व यथार्थ की तटस्थ मुद्रा को कविता में दर्ज किया। जलज का यह दूसरा कविता संग्रह ” रहूँगा तब तक इसी लोक में” इसी लोकधर्मी परंपरा की रीति का जीवंत निर्वहन है। •••••• जलज की कविता भी हताशा और निराशा का विधान नहीं करती, वह व्यवस्था और वैश्विक संकटों के बरक्स परिपक्व उम्मीद का सृजन करती है। यही जलज की कविता की मौलिकता है व विशिष्टता है।”
● प्रखर आलोचक उमाशंकर सिंह परमार का उपरोक्त कथन कवि जलज के लिए एक दस्तावेजी प्रमाण पत्र है कि वे जन कवि केदारनाथ अग्रवाल के उत्तराधिकारी रचनाकारों की पंक्ति में सम्मानित स्थान पर हैं और प्रसन्नता का विषय है कि उनके सृजन का समुचित मूल्यांकन उनके जीते जी हो रहा है। जन कवि केदार के कविता संग्रह “वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी” की एक कविता पढ़िए:~ “जड़ें भूमि में गड़ाए खड़ा / महाबाहुओं का विटप है बड़ा / लड़ा आँधियों से/ हमेशा लड़ा/ न हारा, न टूटा, न पीला पड़ा/ नए फूल, फल, पात से है लदा/ जवानी बसंती रही है सदा।”
● केदार बाबू की इस कविता की छाप जलज की कविता~ “वे खेलते हैं” में साफ साफ दिखती है:~ “देखो तो / तरु कितना / पास पास रहते हैं/ जुल्म विकट सहते हैं / फिर भी परहित की ही / कथा नित्य कहते हैं।”
● इसी तरह कवि जलज की एक और कविता देखिए” आएगा वह दिन” “आएगा / वह दिन जरूर / जब / मेरा भी तन / नहीं रहेगा।/ जीवन का धन / नहीं रहेगा।/ तब भी है दृढ़ आस/ और विश्वास / कि मेरी बतियाँ बनी रहेंगी/ सत्कृतियाँ बनी रहेंगी/ संस्मृतियाँ बनी रहेंगी।” कवि जलज की समझ साफ है कि यह तन एक दिन नहीं रहेगा, लेकिन जीवन के प्रति उनकी आस्था की नींव जरा भी नहीं हिलती, उन्हें मृत्यु का कोई खौफ नहीं है, विनाश से कोई घबराहट नहीं है, बल्कि मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य में भी पूरी आस्था के साथ पैर जमाए हैं और कदापि विचलित नहीं होते। जीवन के प्रति ऐसी दृढ़ आस्था अंततः उनको जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता से मिलती है:~ “हम न रहेंगे / तब भी तो ये खेत रहेंगे/ इन खेतों पर घन गहराते/ शेष रहेंगे / जीवन देते/ प्यास बुझाते/ माटी को मदमस्त बनाते / श्याम बदरिया के/ लहराते केश रहेंगे/•••• मधु के दानी / मोद मनाते / भूतल को रसंसिक्त बनाते / लाल चुनरिया में/ लहराते अंग रहेंगे।”
● इसी पृष्ठभूमि पर कवि जलज पुनः अपनी आस्था यूँ व्यक्त करते हैं:~ “सृजन की/ संजीवनी/ पीता रहूँगा/ मृत्यु के भय से/ सदा/ रीता रहूँगा/ जिया अपने लिए ही, तो/ क्या जिया फिर/ जिंदगी सबके लिए/ जीता रहूँगा।” कवि की आस्था केवल जीवित रहने या स्वयं का जीवन सुखद बनाने तथा आत्मकेन्द्रित रहने तक सीमित नहीं है। वे सार्वजनिक रूप से घोषित करते हैं कि “~ “इन्सानियत न मरे/ धुँआधार लिखूँगा/ हैवानियत भस्म हो/ अंगार लिखूँगा/ अब सरेआम सच का है/ कत्ल हो रहा/ इन्साफ हेतु/ आर-पार लिखूँगा।” अर्थात कवि मनुष्यता के पक्ष में प्रतिरोध और विद्रोह के उस चरम बिन्दु पर है, जहाँ से जानबूझकर सुविचारित तरीके से अभिव्यक्ति के सभी खतरे उठाने को युद्ध रत मुद्रा में तत्पर है। साहस के ऐसे समर्थ कवि को सौ सौ सलाम।
● कवि जलज की एक बहुत जरूरी है कविता। है~ “वे मनुष्य”। इस कविता में मनुष्यता के प्रति उनका अपनत्व और ममत्व तो साफ झलकता है, लेकिन वे उन मनुष्यों को धिक्कारने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे, जो लोग प्रकृति, पहाड़, नदी, जंगल तथा संपूर्ण पर्यावरण को नष्ट करके पृथ्वी को अप्रत्याशित खतरों में डालने का गहरा षड्यंत्र कर रहे हैं। जलज हाथ उठाकर कहते हैं कि :~ “कैसे हैं वे मनुष्य/ जो तनिक भी/ सोचे समझे बिना/ भरते हुए/ मनुष्यता की खाल में/ भूसा/ भगते चले जा रहे हैं/ नितांत/ भौतिकवादियों की भीड़ में/ ••••• वे भौतिकता की/ भयंकर चकाचौंध में/ इतना चौंधिया गये हैं कि/ ढहा रहे हैं/ गगनचुंबी पहाड़/ बना रहे हैं हर नदी की देह को दुर्बल/ ध्वस्त कर रहे हैं/ सघन जंगल/ और/ बुला रहे हैं/ पृथ्वी पर/ अप्रत्याशित अमंगल/। “वे मनुष्य” कविता लिखकर भी जलज का कवि मन लगातार बेचैन ही है। वे लुटेरों को “कुबेर के वंशज” कहकर अपनी कविता के चाबुक उन पर बरसाते हैं:~ “देखिए तो / अघाते नहीं हैं/ कुबेर के वंशज/ ••••• वे चला रहे हैं/ धुँआधार/ पूँजीवाद का/ अंतहीन अभियान/ बना रहे हैं/ अपने उन्माद के नद को अथाह/ ••••• सोचते नहीं हैं / तनिक भी / वे कुबेर के वंशज/ कि ऐसे में/ उनकी हर एक की/ कंचन काया भी/ हो सकती है/ शीघ्र ही/ भस्मीभूत/ असंख्य असहाय/ जनों की आहों की आग से।”
● कवि जलज की यही वेदना, चिंता तथा आक्रोश उनकी अन्य अनेक कविताओं, जैसे ~ “वसुन्धरा की व्यथा”, “वे खेलते हैं”, “हिमालय की वादियों में” तथा “आजकल” में भी मौजूद है।
● समकालीन राजनीति पर भी कवि जलज अपनी पैनी नज़र रखते हैं और राजनीतिक गंदगी, लूटपाट तथा अनाचार पर ताबड़ तोड़ प्रहार करते हैं। “सियासत का सूरज” में वे कहते हैं कि:~ यह बहुत ही/ चिन्ताजनक है/ कि आजकल/ सियासत का सूरज/ देने लगा है/ घोर अनय के/ अंधेरों की / दुनिया को भी/ पुष्ट संरक्षण ••••••। इसी सिलसिले की उनकी एक अन्य कविता है “आँकड़ों के आइने में”। कवि की तड़प और समकाल का नग्न सत्य इस कविता में बखूबी उभरकर सामने आता है:~ “दिखाया जा रहा है / लगातार / आँकड़ों के आइने में/ तेजी से घटते हुए गरीबी का ग्राफ/ जबकि वास्तविकता यह है कि/ आज भी गरीबी के सिर पर / चटक रहा है / धुआंधार अमीरी के कहर का हथौड़ा/ ••••• अमीरी की / शहजादी/ अब करने लगी है / बेहद मनमानी / लगता है कि / नहीं रह गया है / उसके शरीर में/ संवेदना का एक भी बूँद पानी।” ऐसी ही राजनीतिक संदर्भों की अन्य कविताएँ ही अपने काबू में अपने कथ्य में प्रतिरोध रचतीं हैं। यथा~ “नव उदारवाद”, “गायब है लोकतंत्र”, “वे भूल रहे हैं”। आदि।
● कवि जलज किसान परिवार से आते हैं। स्वाभाविक है कि उनके काव्य में किसान और मजदूर की दुर्दशा, खेत खलिहान, फसल, गाँव, जंगल, प्रकृति तथा पर्यावरण के क्षरण की बात तो होगी ही। “माटी का भगवान” शीर्षक से उनकी एक लंबी कविता के कुछ अंश जरूर देखिए:~ ” यह विकट/ विडंबना है कि / माटी का भगवान / कहा जाने वाला/ अन्नदाता / किसान / अब भी/ झेल रहा है / लगातार/ दरिद्रता की मार / ••••• हो रहा है / पूँजीपतियों के घोर शोषण का / शिकार।/ आज भी / दिख जाता है / किसी न किसी गाँव में / प्रेमचंद के/ गोदान के / होरी जैसा / गरीबी से जूझता हुआ / कोई न कोई / दुखी किसान / जो त्याग रहा होता है / अपने प्राण / उतारे बिना कर्ज का/ भारी बोझ ••••••।”
● इस कविता की पृष्ठभूमि में प्रेमचंद का पुनर्पाठ इस सत्य को प्रमाणित करता है कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी और वर्तमान दौर के कथित अमृत महोत्सव के समय में भी अन्नदाता किसान आत्महत्या के लिए विवश है, लाचार है तथा मजबूर है। और सामंती व्यवस्था मौन है, मुर्दा है, मनुष्यता की शत्रु है। इन्हीं संदर्भों की जलज की अन्य कविताएँ भी समकाल को चित्रित करतीं हैं, जैसे~ “माटी का सही मूल्य” और “व्यर्थ है” आदि।
● जनकवि केदार नाथ अग्रवाल ने किसानों और मजदूरों की दुर्दशा को बहुत नजदीक से देखा समझा है, क्योंकि वे भी बाँदा के कमासिन गाँव की पैदाइश हैं और संयोग है कि कवि जवाहरलाल जलज भी इसी गाँव के हैं। केदार बाबू ने किसानों और मजदूरों पर सैकड़ों कविताएँ लिखीं हैं। आज के संदर्भ में उनकी एक कविता “पैतृक सम्पत्ति” के कुछ अंश उद्धृत हैं:~ “जब बाप मरा, तब यह पाया, / भूखे किसान के बेटे ने:-/ घर का मलवा, टूटी खटिया/ कुछ हाथ भूमि- वह भी परती।/ ••••• बनिया के रुपयों का कर्जा / जो नहीं चुकाने पर चुकता/ •••• जो भूख मिली/ सौगुनी बाप से अधिक मिली। / अब पेट खलाए फिरता है/ चौड़ा मुँह बाए फिरता है।/ वह क्या जाने आजादी क्या है ? / आजाद देश की बातें क्या हैं ?”
● कवि जलज के इस कविता संग्रह की पहली कविता “वे बोल” को मैंने दो तीन बार पढ़ा और मुझे केदार बाबू की बहुत पहले पढ़ी एक कविता याद आने लगी। तो पहले केदार बाबू की कविता, फिर जलज जी की कविता का जायजा लेते हैं। केदार बाबू के “वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी” कविता संग्रह में “क्रांति मशाल” शीर्षक कविता का स्वर है:~ “मैने सत् को सत्य कहा है/ और असत् को झूठ कहा है / जीवित हाथों से जीवन की/ और जगत की मूठ कहा है/ मैंने श्रम को शक्ति कहा है/ और अश्रम को काल कहा है/ करनी करने को, लड़ने को/ युग की क्रांति मशाल कहा है।”
● इस कविता के आइने में जब हम कवि जलज की कविता “वे बोल” पढ़ते हैं, तो एक सच यह उभरता है कि जो सामाजिक और राजनीतिक संकट कवि केदार के समय मौजूद हैं, वही संकट पचीस तीस साल बाद भी जस का तस हैं और आज के कवि जलज भी उसी संकट से संघर्ष कर रहे हैं और टकरा रहे हैं ? इस धरातल पर जलज की कविता परखिए ~ “यह भरोसा है कि/ मेरी कोई भी/ सद्यः जात रचना/ बोल नहीं सकेगी/ वे बोल/ जो चाहता है/ बोलवाना/ बाजारवाद का/ प्रबल पोषक/ पूँजीवाद का सशक्त समर्थक/ ••••• चाहे कोई भी/ कितना भी गिराए/ उस पर/ अनर्थ की गाज/ किन्तु वह/ हिलेगी नहीं।/ बोलती रहेगी/ अंतरात्मा की आवाज/ पिलाती रहेगी/ ईमानदारी का घोल/ और खोलती रहेगी/ इन्सानियत के दुश्मनों की/ काली करतूतों की पोल।”
● कवि जलज की कविताएँ स्वयं ही उनके हौसले, हिम्मत तथा आस्था का बयान करतीं हैं, क्योंकि कि जलज सीधी सरल भाषा में अपनी कविता को इतना अधिक संप्रेषणीय बनाते चलते हैं कि वह पाठक के ह्रदय में सीधे-सीधे प्रवेश करती चली जाती है। वे कविता को कठिन काव्य का प्रेत बनाने से बराबर बचते रहते हैं। इसी सरल सहज भाव की एक कविता “सृजन का महानद” के कुछ अंश देखिए:~ “पड़ती रही / मुझ पर / निरंतर ही / दुर्भाग्य की मार/ घिरता रहा/ हादसों के मजबूत घेरे में / फड़फड़ाता रहा/ पिंजरे में बंद पक्षी की तरह / •••••• फिर भी टूटा नहीं है / मेरे उत्साह का बाँध/ मैं रहूँगा/ आखिरी दम तक/ प्रयासरत/ बढ़ाने के लिए/ कविता का कद/ और बहाने के लिए/ सार्थक सृजन का महानद।”
● इसी तरह के संघर्षों से जूझते हुए केदार जी बताते हैं कि ~ “हारा हूँ/ सौ बार/ गुनाहों से लड़ लड़ कर/ लेकिन/ बारंबार लड़ा हूँ/ मैं उठ उठ कर/ इससे मेरा हर गुनाह भी मुझसे हारा/ मैंने अपने जीवन को इस तरह उबारा।”
● कवि जलज की एक कविता है “मुक्ति”, जिसमें वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार अथवा वैभव की किंचित कामना उनके मन मस्तिष्क में नहीं है। वे तो मनुष्य और धरती की व्यथा कथा रचने और उसका समाधान खोजने में ही अपने को धन्य मानते हैं। उनकी इस कविता के कुछ अंश यूँ हैं:~ “मैं नहीं चाहता हूँ/ मुक्ति/ नहीं चाहता हूँ/ देवलोक के/ वैभव की चादर ओढ़ना/ नहीं चाहता हूँ/ धरती से नाता तोड़ना। ••••• मैं चाहता हूँ/ मनुष्यता का महानद बनकर/ अविरल बहते रहना/ और/ वसुंधरा की/ व्यथा कथा को/ सब दिन कहते रहना।”
● केदार बाबू की कविता में भी यह अनुगूँज है, इन शब्दों में ~ “मर जाऊँगा, तब भी तुमसे दूर नहीं मैं हो पाऊँगा/ मेरे देश/ तुम्हारी छाती की मिट्टी मैं हो जाऊँगा।”
● अब जलज जी की एक और कविता “देता रहूँगा” का भी उल्लेख जरूरी है:~ “अपने/ अंतर्मन के विशद/ आँगन में/ चुगाता रहूँगा/ सृजनात्मकता की चिड़िया को/ संवेदनशीलता का दाना/ आखिरी दम तक।”
● ये जो सृजन की ललक है, वह कवि जलज को लगातार ऊर्जा देती है और वे अपनी कविता के माध्यम से जन जन की विजय का शंखनाद कर रहे हैं। जलज जी को भरोसा है कि मनुष्यता के प्रति ईमानदार और संवेदनशील कवि ही अपनी रचनाओं के साथ कालजयी कवि हो सकता है। समकाल के संघर्षों से जूझते हुए यथार्थ को सामने लाते रहना, सत्य की लीक को पकड़े रहना तथा जनपक्षधरता की बाँह गहे रहना ही कवि का धर्म है। वे लिखते हैं कि ~ “गुलज़ार रहेगा/ हमेशा ही/ उस कवि के/ अस्तित्व का आँगन/ जो साधता है/ सार्थक शब्द/ जन्मता है/ कालजयी कविता/ सहते हुए/ प्रसव की/ प्राण लेवा पीड़ा/ ••••• टेकता नहीं है/ घुटने/ संघर्षों की/ सेना के सामने •••••।”
●● हमने तो कवि जलज के इस कविता संग्रह को पढ़ा, तो एक जागरूक पाठक के रूप में अपनी टिप्पणी आपसे साझा की है। वस्तुतः उनके कविता संग्रह पर और कवि जलज की इन तमाम मनः स्थितियों का बहुत सूक्ष्म अन्वेषण किया है ~ जनवादी कवि एवं समर्थ आलोचक, कथाकार, संपादक तथा प्रोफेसर भरत प्रसाद ने। उन्होंने जलज जी के इस कविता संग्रह की लंबी भूमिका “मौलिक लकीर के सर्जक” शीर्षक में लिखी है, बहुत तन्मयता के साथ लिखी है तथा खुले मन से लिखी है। इस भूमिका के कुछ जरूरी अंश उद्धृत करना नितांत आवश्यक है। भूमिका की शुरुआत कुछ यूँ है:~ •••••• “कवि जितना बाहर दिखता है, उससे कई गुना भीतर होता है। उसके कवि की सच्चाई बाहर बाहर से कभी नहीं जानी जा सकती, क्योंकि वह बना ही है, मन की बारीकियों से, कल्पना की उड़ानों से, अनुभूति की तरंगों से और अतल में जमी हुई जिद से। •••••• यह बात दीगर है कि वह जाने अनजाने मौलिक लकीर का शिल्पकार हो जाता है। ••••• महत कवि केदारनाथ अग्रवाल की जमीन से उठे हुए आकुलता-धर्मी सर्जक कवि जवाहरलाल जलज समय संवादी कवि हैं। जिनका कवि मन बेचैनियों के ताने-बाने से निर्मित है, किन्तु न हारता है, न थकता है, न झुकता है। बल्कि बेचैनियाँ कवि को और अधिक संकल्पित करतीं हैं, अन्वेषक बनातीं हैं और प्राणमय कर देतीं हैं। •••• जलज अपनी भावनाओं के स्वयंभू शिल्पकार हैं। ••••• सामयिक घटनाएँ, नीचताएँ, क्रूरता, चालाकियाँ कवि मन को व्यथित, विचलित तो करतीं हैं, तोड़ती भी हैं भीतर से, किन्तु हरा नहीं पातीं।
यह मूल्य, यह हुनर, यह दायित्वबोधजलज को विरासत में मिला है। वह विरासत है ~ प्रगतिशील कवियों के सानिध्य की, वह मूल्य है ~ केदारनाथ अग्रवाल के व्यक्तित्व से मिला हुआ जीवन संघर्ष। •••••• जलज का कवि खूब लड़ता है, लड़ने का शौक और तेवर दोनों रखता है। हार न मानना कवि जलज की स्थायी सार्थकता भी है। •••••••• मौजूद वक्त में दूसरी धारा के कवियों की आँधी चल रही है। एक तरह से यह कला कुशल कवियों का जटिल दौर है। जलज की कविताएँ आपमें बहती हैं, उतरती हैं, रिसती हैं और घुलती हैं। जैसे जलज कह रहे हों ~ “जो कहना है/ दो टूक कहो/ जो भीतर है– बेखौफ़ रचो/ जो मार्मिक है–रेशा/ रेशा उद्घाटित करो।” एक कविता है ~ “माटी का सही मूल्य”, देखिए कुछ पंक्तियाँ ~ “माटी से ज्यादा अन्य कोई भी वस्तु/ नहीं है कीमती, इसलिए/ बेहद जरूरी है, आँकना/ माटी का सही मूल्य।”
•••••• जलज का समूचा व्यक्तित्व, उनकी काव्य भाषा, अभिव्यक्ति शैली और विचारधारा सब इसी जनपद की आदिम गंध, अपरिचित ध्वनियों और शब्दातीत मिठास–तितास से निर्मित हुई। जहाँ न कोई छिपाव है, न सुनियोजित तराश है, न कोई नफासत है, न ही सायास श्रेष्ठता का छद्म है। जलज जी का काव्य कवियों के लिए नहीं, आम पाठकों के लिए है।
••••••• “मेरे प्राणों का हंस/ हो जाएगा/ ब्रह्मांडमें विलीन/ तब भी मैं नहीं हो सकूँगा/ अपनी प्यारी धरती से/ सदा के लिए/ बिछुड़ जाने को मजबूर।” एकमात्र यह कविता अकेले जलज के सर्जक को बचाए रखने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि यह कवि के मर्म का विस्फोट है और भविष्य में उनके व्यक्तित्व को सार्थक बनाए रखने का आइना भी।
••••••• दो मत नहीं, कि उनका जीवन अनेक श्रेष्ठ रचनाकारों के सानिध्य से भरपूर रहा। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा जैसे मानक साहित्यकारों की प्रेरणा संकल्प बनकर उनके कवि का निरंतर निर्माण करती रही। ••••• इस दूसरी काव्यकृति तक यदि जवाहरलाल जलज में अपने श्रेष्ठ को हासिल करने की परिपक्व अकुलाहट बरकरार है, तो यह न केवल कवि, बल्कि हिन्दी साहित्य जगत के लिए भी कीमती संकेत है।”
●●● उपरोक्त भूमिका के परिप्रेक्ष्य में समर्थ और समृद्ध आलोचक भरत प्रसाद ने कवि जवाहरलाल जलज के कृतित्व और व्यक्तित्व का समुचित मूल्यांकन करके कवि को नयी ऊर्जा से लबालब कर दिया है।
तथा उनको श्रेष्ठ रचनाकारों की परंपरा में स्थापित कर दिया है। इस दौर के तल्ख कहे जाने वाले आलोचक उमाशंकर सिंह परमार भी अपनी भूमिका में कवि जलज को उपरोक्त आशय का प्रमाण पत्र पहले ही दे चुके हैं।
हम आशा करते हैं कि कवि जलज सृजन करते रहेंगे और जल्दी ही अपने नये कविता संग्रह से साक्षात्कार कराएंगे।

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🔴 गोपाल गोयल ~ संपादक मुक्ति चक्र बाँदा

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