मुरारबाजी 22 मई,1665 बलिदान दिवस ।
मुरारबाजी 22 मई,1665 बलिदान दिवस ।
यदि आप समय काल और परिस्थिति को देखें तो यह पायेंगे कि धर्म का सबसे अधिक नुकसान कुछ गद्दारों ने किया है अन्यथा विधर्मियों में इतना साहस कभी नहीं था कि वे इस को क्षति पहुँचा सके. आज भी यदि आप अपने आसपास दृष्टि डालकर देखें तो अपने ही धर्म अपने ही देश को खोखला करने वाले लोग किसी न किसी माध्यम से दिखाई पड़ जायेंगे.
इतिहास को बार बार पढ़कर भी हमने गद्दारों से सबक नहीं लिया. क्योंकि आज के समय जयचंद के मानसिकता वालों की अधिकता है जो अपने ही देश में टुकड़े-टुकड़े का नारा लगाते हुए विदेशी ताकतों की तारीफ करने के साथ अपने ही देश के शासकों के विरुद्ध आए दिन किसी न किसी प्रकार का षड्यंत्र लगातार रचते रहते हैं.
कुछ ऐसा ही हुआ था मोरारजी देशपांडे जी के साथ जिन्होंने 6 हज़ार हिन्दुओं के साथ 10 हज़ार मुग़लों से लड़कर पाई थी वीरगति. वीरता का इतिहास भारत में जितना पुराना रहा उतना ही पुराना यहाँ गद्दारों का भी इतिहास रहा था. इस घटना से सिद्ध हो जाएगा अन्यथा हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने में जुटा एक महायोद्धा अपने हिन्दू समाज के ही एक गद्दार से लड़कर वीरगति को न प्राप्त हुआ होता.
घटना 5 जनवरी 1665 की है, ये अवसर था सूर्य ग्रहण का जब शिवाजी महाराज ने माता जीजाबाई के साथ महाबलेश्वर मन्दिर में पूजा की. फिर वे दक्षिण के विजय अभियान पर निकल गये. तभी उन्हें सूचना मिली कि मिर्जा राजा जयसिंह और दिलेर खाँ पूना में पुरन्दर किले की ओर बढ़ रहे हैं. शिवाजी दक्षिण अभियान को स्थगित करना नहीं चाहते थे; पर इन्हें रोकना भी आवश्यक था.
कुछ ही समय में मुगल सेना ने पुरन्दर किले को घेर लिया. वह निकटवर्ती गाँवों में लूटपाट कर आतंक फैलाने लगी. इससे शिवाजी ने मुगलों की चाकरी कर रहे मिर्जा राजा जयसिंह को एक लम्बा पत्र लिखा, जो अब एक ऐतिहासिक विरासत है; पर जयसिंह पर कोई प्रभाव नहीं हुआ. उल्टे पुरन्दर किले पर हमले और तेज हो गये. पुरन्दर किला दो चोटियों पर बना था. मुख्य किला 2500 फुट ऊँची चोटी पर था, जबकि 2100 फुट वाली चोटी पर वज्रगढ़ बना था. जब कई दिन के बाद भी मुगलों को किले को हथियाने में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने वज्रगढ़ की ओर से तोपें चढ़ानी प्रारम्भ कर दीं.
मराठा वीरों ने कई बार उन्हें पीछे धकेला; पर अन्ततः मुगल वहाँ तोप चढ़ाने में सफल हो गये. इस युद्ध में हजारों मराठा सैनिक मारे गये. पुरन्दर किले में मराठा सेना का नेतृत्व मुरारबाजी देशपाण्डे कर रहे थे. उनके पास 6000 सैनिक थे, जबकि मुगल सेना 10000 की संख्या में थी और फिर उनके पास तोपें भी थीं. किले पर सामने से दिलेर खाँ ने, तो पीछे से राजा जयसिंह के बेटे कीरत सिंह ने हमला बोल दिया.
इससे मुरारबाजी दो पाटों के बीच संकट में फँस गये. उनके अधिकांश सैनिक मारे जा चुके थे. शिवाजी ने समाचार पाते ही नेताजी पालकर को किले में गोला-बारूद पहुँचाने को कहा. उन्होंने पिछले भाग में हल्ला बोलकर इस काम में सफलता पाई; पर वे स्वयं किले में नहीं पहुँच सके. इससे किले पर दबाव तो कुछ कम हुआ; पर किला अब भी पूरी तरह असुरक्षित था.
किले के मराठा सैनिकों को अब आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी. मुरारबाजी को भी कुछ सूझ नहीं रहा था. अन्ततः उन्होंने आत्माहुति का मार्ग अपनाते हुए निर्णायक युद्ध लड़ने का निर्णय लिया. किले का मुख्य द्वार खोल दिया गया. बचे हुए 700 सैनिक हाथ में तलवार लेकर मुगलों पर टूट पड़े. इस आत्मबलिदानी दल का नेतृत्व स्वयं मुरारबाजी कर रहे थे. उनके पीछे 200 घुड़सवार सैनिक भी थे. भयानक मारकाट प्रारम्भ हो गयी.
मुरारबाजी मुगलों को काटते हुए सेना के बीच तक पहुँच गये. उनकी आँखें दिलेर खाँ को तलाश रही थीं. वे उसे जहन्नुम में पहुँचाना चाहते थे; पर वह सेना के पिछले भाग में हाथी पर एक हौदे में बैठा था. मुरारबाजी ने एक मुगल घुड़सवार को काटकर उसका घोड़ा छीना और उस पर सवार होकर दिलेर खाँ की ओर बढ़ गये. दिलेर खाँ ने यह देखकर एक तीर चलाया, जो मुरारबाजी के सीने में लगा। इसके बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर दिलेर खाँ की ओर अपना भाला फेंककर मारा. तब तक एक और तीर ने उनकी गर्दन को बींध दिया. वे घोड़े से निर्जीव होकर गिर पड़े.
यह ऐतिहासिक युद्ध 22 मई, 1665 को हुआ था. मुरारबाजी ने जीवित रहते मुगलों को किले में घुसने नहीं दिया. ऐसे वीरों के बल पर ही छत्रपति शिवाजी क्रूर विदेशी और विधर्मी मुगल शासन की जड़ें हिलाकर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर सके.
हम सभी को व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना का परित्याग कर राष्ट्र के नव निर्माण में अपना सर्वोत्तम कर्त्तव्य कर्म करने का यत्न करना चाहिए।
अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से समाज की भावी पीढ़ी को संस्कारित करके अपने मानव होने की जिम्मेदारी ईमानदारीपूर्वक निभा रहा हूँ ।
Comments are closed.