हरि सिंह नलवा 30 अप्रैल,1837 बलिदान दिवस
हरि सिंह नलवा 30 अप्रैल,1837 बलिदान दिवस
हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 में 28 अप्रैल को एक सिक्ख परिवार में गुजरांवाला पंजाब में हुआ था. इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्पल और माता का नाम धर्मा कौर था. बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से हरिया कहते थे. सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहान्त हो गया था.
1805 ई. के वसन्तोत्सव पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने आयोजित किया था, हरि सिंह ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया. इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया. शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेना नायकों में से एक बन गये.
रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये. उनके साथ कुछ सैनिक और हरि सिंह भी थे. अचानक उसी समय एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया. सभी सैनिक डर के मारे दहशत में थे. ऐसे में हरि सिंह मुकाबले को सामने आये.
इस खतरनाक मुठभेड़ में हरि सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुँह को बीच में से चीर डाला. उसकी इस बहादुरी को देख कर रणजीत सिंह ने कहा था कि तुम तो राजा नल जैसे वीर हो. तभी से हरि सिंह हरि सिंह नलवा के नाम से प्रसिद्ध हो गये.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक हरि सिंह नलवा लगातार अफ़ग़ानों से लोहा लेते रहे. अफ़ग़ानों के विरुद्ध लड़ाई जीतकर उन्होंने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की स्थापना की.
काबुल बादशाहत के तीन पश्तून उत्तराधिकारी सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे. पहला था अहमद शाह अब्दाली का पोता, शाह सूजा; दूसरा फ़तहख़ान और उनके बेटे और तीसरे, सुल्तान मोहम्मद खान.
सरदार हरि सिंह नलवा ने अपने अभियानों द्वारा सिन्धु नदी के पार अफ़ग़ान साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार करके सिख साम्राज्य की उत्तर पश्चिम सीमांत का विस्तार किया था. हरि सिंह नलवे की सेनाओं ने अफ़ग़ानों को खैबर दर्रे के उस ओर खदेड़ कर इतिहास की धारा ही बदल दी.
ख़ैबर दर्रे से होकर ही 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के भारत पर आक्रमण करने और लूटपाट करने की प्रक्रिया शुरू हुई. इसी दर्रे से होकर यूनानी, हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और मुग़ल लगभग एक हज़ार वर्ष तक भारत पर आक्रमण करते रहे.
तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बहुत पीड़ित हुआ था. हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बन्द कर के इस ऐतिहासिक अपमानजनक प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था.
1837 ई. में जब महाराजा रणजीत सिंह अपने बेटे के विवाह में व्यस्त थे तब सरदार हरि सिंह नलवा उत्तर पश्चिम सीमा की रक्षा कर रहे थे. हरि सिंह नलवा ने राजा रणजीत सिंह से जमरौद के किले की ओर बढ़ी सेना भेजने की माँग की थी लेकिन एक महीने तक सहायता के लिए कोई सेना नहीं पहुँची.
सरदार हरि सिंह नलवा अपनी मुट्ठी भर सैनिकों के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए 30 अप्रैल,1837 को वीरगति को प्राप्त हुए.
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