छत्रपति संभाजी महाराज 14 मई 1657 जयन्ती
छत्रपति संभाजी महाराज 14 मई 1657 जयन्ती
भारत में हिन्दू धर्म की रक्षार्थ अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी है. छत्रपति शिवाजी के बड़े पुत्र सम्भाजी भी इस मणिमाला के एक गौरवपूर्ण मोती हैं.
उनका जन्म 14 मई सन् 1657 को पुरन्दर किले में माँ सोयराबाई की कोख से हुआ था. लेकिन सम्भाजी के 2 वर्ष के होने तक सोयराबाई का देहान्त हो गया था, इसलिए सम्भाजी का पालन-पोषण शिवाजी की माँ जीजाबाई ने किया था. सम्भाजी महाराज को छवा कहकर भी बुलाया जाता था, जिस का मराठी में अर्थ होता है शावक अर्थात शेर का बच्चा. सम्भाजी महाराज संस्कृत और 8 अन्य भाषाओं के ज्ञाता थे.
3 अप्रैल,1680 को शिवाजी के देहान्त हो गया. 16 जनवरी 1681 को सम्भाजी महाराज का विधिवत् राज्यभिषेक हुआ और तब उन्होंने हिन्दवी साम्राज्य का भार सँभाला; हिन्दुस्थान में हिंदवी स्वराज एवं हिन्दू पातशाही की गौरवपूर्ण स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन को यदि चार पंक्तियों में संजोया जाए तो यही कहा जाएगा कि:- महा पराक्रमी परम प्रतापी, एक ही शंभू राजा था.
1681 में ही औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण भाग कर धर्मवीर छत्रपति संभाजी महाराज का आश्रय ग्रहण किया. उन्होंने अकेले मुग़ल, पोर्तुगीज, अंग्रेज़ तथा अन्य शत्रुओं के साथ लड़ने के साथ ही उन्हें अन्तर्गत शत्रुओं से भी लड़ना पड़ा.
उन्होंने अपनी आयु के केवल 14 वर्ष में बुध भूषण, नखशिख, नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रन्थ लिखे थे.
संभाजी महाराज का जीवन एवं उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब के साथ तमाम मुगल सेना थर्राने लगती थी. संभाजी के घोड़े की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे. यही कारण था कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी संभाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज को अक्षुण्ण रखा था.
वैसे शूरता-वीरता के साथ निडरता का वरदान भी संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से मानों विरासत में प्राप्त हुआ था. राजपूत वीर राजा जयसिंह के कहने पर, उन पर भरोसा रखते हुए जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पहुंचे थे तो दूरदृष्टि रखते हुए वे अपने पुत्र संभाजी को भी साथ लेकर पहुंचे थे.
कपट के चलते औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और दोनों पिता-पुत्र को तहखाने में बंद कर दिया. फिर भी शिवाजी ने कूटनीति के चलते औरंगजेब से अपनी रिहाई करवा ली, उस समय संभा जी अपने पिता के साथ रिहाई के साक्षी बने थे.
अत्याचारी, क्रुर, हैवान, दानव मुगल औरंगजेब की नाक में मराठों ने दम कर रखा था. वही औरंगजेब का गैर-मुस्लिमों के साथ बर्बरता चरम पर था. स्वयं मराठों ने राजद्रोह कर संभाजी को औरंगजेब का बंदी बनने पर मजबूर किया और औरंगजेब ने ये कहते हुए कि “अगर एक भी मुग़ल शहजादा संभाजी की तरह होता तो आज मुगलों का परचम पूरी दुनिया में लहराता”.
सम्भाजी अपनी शौर्यता के लिये बहुत प्रसिद्ध थे. सम्भाजी महाराज ने अपने कम समय के शासन काल मे 120 युद्ध किये और एक भी युद्ध में परास्त नहीं हुए. 1680 में छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्य के बाद संभाजी ने गद्दी संभाली. अपनी प्रबल शौर्यता के कारण उन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगजेब की नाक में दम करना शुरू कर दिया.
उनके पराक्रम की वजह से परेशान होकर दिल्ली के बादशाह औरंगजेब ने कसम खायी थी कि जब तक छत्रपती संभाजी पकडे नहीं जायेंगे, वो अपना मुकुट सर पर नहीं धारण करेगा. शिवाजी के दुसरे पुत्र राजाराम को छत्रपति बनाने में असफल रहने वाले राजाराम समर्थकों ने औरंगजेब के पुत्र अकबर से राज्य पर आक्रमण करके उसे मुग़ल साम्राज्य का शासक बनाने की गुजारिश करने वाला पत्र लिखा.
किन्तु छत्रपति संभाजी के पराक्रम से परिचित और उनका आश्रित होने के कारण अकबर ने वह पत्र छत्रपति संभाजी को भेज दिया. इस राजद्रोह से क्रोधित छत्रपति संभाजी ने अपने सामंतो को मृत्युदंड दिया. संभाजी महाराज ने 1683 में पुर्तगालियों को पराजित किया. इसी समय वह किसी राजकीय कारण से संगमेश्वर में रहे थे.
जिस दिन वो रायगड के लिए प्रस्थान करने वाले थे उसी दिन कुछ ग्रामीणों ने अपनी समस्या बतायी. जिसके चलते छत्रपति संभाजी महाराज ने अपने साथ केवल 200 सैनिक रख बाकी सेना को रायगड भेज दिया. उसी समय उनके साले गनोजी शिर्के, ने गद्दारी कर मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5,000 के फ़ौज के साथ संभाजी पर हमला कर दिया.
यह वह रास्ता था जो केवल मराठों को पता था. इसलिए संभाजी महाराज को कभी नहीं लगा था कि शत्रु इस ओर से आ सकेगा. उन्होंने लड़ने का प्रयास किया किन्तु इतनी बड़ी फ़ौज के सामने 200 सैनिकों का साहस काम कर न पाया और अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ वह बंदी बना लिए गये.
संभाजी से बुरी तरह खफा औरंगजेब ने अपने कब्जे में उन्हें पाकर क्रूरता और अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी. दोनों की जुबान कटवा दी, आँखें निकाल दी. उन पर मुस्लिम धर्म को ग्रहण करने का दबाव डाला गया. बदले में औरंगबजेब ने उन्हें जान बख्शने का भी वचन दिया.
औरंगजेब का जो हरकारा ये प्रस्ताव ले कर संभाजी के पास आया उन्होंने उसके मुँह पर थूक दिया. 11 मार्च 1689 (हिन्दू नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) को औरंगजेब ने संभाजी और उनके साथी के शरीर के टुकडे-टुकड़े करवा दिए. हत्या से पूर्व औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कहा के मेरे चार बेटों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुग़ल सल्तनत में समाया होता.
जब छत्रपति संभाजी महाराज के टुकडे तुलापुर की नदी में फेंकें गए तो उस किनारे रहने वाले लोगों ने शव के टुकड़ों को इकठ्ठा कर के सिला के जोड़ दिया (इन लोगों को आज शिवले इस नाम से भी जाना जाता है). शरीर के अंगों को आपस में जोड़े जाने के बाद उनका विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया.
औरंगजेब ने सोचा था की मराठी साम्राज्य छत्रपति संभाजी महाराज के मृत्यु के बाद समाप्त हो जाएगा. लेकिन छत्रपति संभाजी महाराज के हत्या की वजह से सारे मराठा एक साथ आकर लड़ने लगे. अत: औरंगजेब को दक्खन में ही प्राण त्याग करना पड़ा. उसका दक्खन जीतने का सपना इसी भूमि में दफन हो गया.
बड़े ही आश्चर्य की बात है कि आज भी उस हत्यारे, लुटेरे , पिशाच रूपी औरंगज़ेब के नाम पर भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति ने औरंगाबाद जैसे शहर बसा रखे हैं जिनमे हिंदुओं के साथ वही हो रहा जो कभी सम्भाजी के साथ हुआ था.
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