किसी अपराधी को केवल अपराध की गंभीर प्रकृति के आधार पर मौत की सजा नहीं दी जा सकती
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी अपराधी को केवल अपराध की गंभीर प्रकृति के आधार पर मौत की सजा नहीं दी जा सकती
सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जो व्यावहारिक रूप से व्यापक और अनुकरणीय होते हैं। एक ही मुकदमे में न्यायालय ने दो ऐसी टिप्पणियां की हैं, जिन्हें याद रखा जाएगा। पहली टिप्पणी का सार यह है कि अदालतों को लड़का-लड़की में भेद नहीं करना चाहिए। दूसरी टिप्पणी, किसी अपराधी को फांसी की सजा तभी सुनाई जाए, जब उसमें सुधार की कोई संभावना नहीं हो।देश के प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हिमा कोहली व न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा ने सात साल के एक बच्चे के अपहरण व हत्या के दोषी याचिकाकर्ता सुंदरराजन की मौत की सजा को कम करते हुए ये टिप्पणियां की हैं। दोषी सुंदरराजन ने जुलाई 2009 में पीड़ित का स्कूल से लौटते समय अपहरण कर लिया था। निचली अदालतों में दोष सिद्ध हो चुका था, फिर भी अपराधी ने बचने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी। अदालत ने दोषी की सजा कम की है, उसे फांसी से बचाया है, तो उसके पर्याप्त कारण भी गिनाए हैं।
बहरहाल, बात पहले लिंगभेद की। यह बात गौर करने की है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसी मामले में पहले लिंगभेद प्रेरित टिप्पणी की थी और अब सर्वोच्च न्यायालय ने ही सुधार की कोशिश की है। प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने दोषसिद्धि के खिलाफ की गई अपील पर फैसला करते समय न्यायालय द्वारा पितृसत्तात्मक भाषा के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई है। अदालत ने पहले टिप्पणी करते हुए इशारा किया था कि फिरौती के लिए विशेष बच्चे के अपहरण का विकल्प सुनियोजित था। मृतक के माता-पिता के चार बच्चे थे – तीन बेटियां और एक बेटा। इकलौते बेटे का अपहरण उसके माता-पिता के मन में अधिकतम भय उत्पन्न करने के लिए था। जान-बूझकर इकलौते पुत्र की हत्या करना, मृतक के माता-पिता के लिए गंभीर परिणाम होता है, पुत्र होता, तो परिवार के वंश को आगे बढ़ाता। ऐसी भाषा पर प्रधान न्यायाधीश ने रोष जताया है, तो यह स्वागतयोग्य है। पितृसत्ता या लिंगभेद के लिए संविधान में भी कोई जगह नहीं है, फिर अदालती व्यवहार व भाषा में यह भेद तो अचंभित करता है। अदालती फैसलों के ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें लिंगभेद हावी दिखा है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा और सुखद टिप्पणी का असर सभी निचली अदालतों तक पहुंचे, तो भारत में समता और न्याय की बुनियाद मजबूत होगी। वाकई, अदालत के लिए यह मायने नहीं होना चाहिए कि कोई लड़का है या लड़की। अपराध सिर्फ अपराध है। पितृसत्तात्मक मूल्यों को व्यावहारिक रूप से अलविदा कहने का कार्य न्याय के मंदिरों में ही संपन्न होना चाहिए।
अब बात अधिकतम सजा की। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी अपराधी को केवल अपराध की गंभीर प्रकृति के आधार पर मौत की सजा नहीं दी जा सकती। यह सजा तभी दी जाए, जब अपराधी में सुधार की कोई संभावना न हो। अदालतों को सुधार और पुनर्वास पर भी विचार करना चाहिए। इस मुकदमे में दोषी के सुधार की संभावना साफ दिखती है। जेल में उसका आचरण सही है, उसने डिप्लोमा भी किया है, अपराध के वक्त उसकी उम्र 23 वर्ष थी, इसलिए यह दुर्लभतम मामला नहीं है। कुछ उदारता दिखाने के बावजूद अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि याचिकाकर्ता या दोषी 20 साल के कारावास को पूरा करने तक किसी भी प्रकार की रियायत का हकदार नहीं होगा। बेशक, समग्रता में ये फैसले मिसाल रहेंगे।
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