श्रीराम की आराधना करें शिव के साथ, जानिए क्यों
‘भगवान शिव’ राम के इष्ट एवं ‘राम’ शिव के इष्ट हैं। ऐसा संयोग इतिहास में नहीं मिलता कि उपास्य और उपासक में परस्पर इष्ट भाव हो इसी स्थिति को संतजन ‘परस्पर देवोभव’ का नाम देते हैं।
शिव का प्रिय मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ एवं ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मंत्र का उच्चारण कर शिव को जल चढ़ाने से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
भगवान राम ने स्वयं कहा है :
‘शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा।’
- अर्थात् :- जो शिव का द्रोह कर के मुझे प्राप्त करना चाहता है वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए शिव आराधना के साथ श्रीरामचरितमानस पाठ का बहुत महत्वपूर्ण होता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम 14 वर्ष के वनवास काल के बीच जब जाबालि ऋषि की तपोभूमि मिलने आए तब भगवान गुप्त प्रवास पर नर्मदा तट पर आए। उस समय यह पर्वतों से घिरा था। रास्ते में भगवान शंकर भी उनसे मिलने आतुर थे, लेकिन भगवान और भक्त के बीच वे नहीं आ रहे थे। भगवान राम के पैरों को कंकर न चुभें इसीलिए शंकरजी ने छोटे-छोटे कंकरों को गोलाकार कर दिया। इसलिए कंकर-कंकर में शंकर बोला जाता है।
जब प्रभु श्रीराम रेवा तट पर पहुंचे तो गुफा से नर्मदा जल बह रहा था। श्रीराम यहीं रुके और बालू एकत्र कर एक माह तक उस बालू का नर्मदा जल से अभिषेक करने लगे। आखिरी दिन शंकरजी वहां स्वयं विराजित हो गए और भगवान राम-शंकर का मिलन हुआ।
शिवप्रिय मैकल सैल सुता सी, सकल सिद्धि सुख संपति राशि…, रामचरित मानस की ये पंक्तियां श्रीराम और शिव के चरण पड़ने की साक्षी है।
जय जय श्रीराम, हर हर महादेव
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[9:43 AM, 8/8/2021] Ved Parkash: 🙏भगवान शंकर ने ली श्रीराम की मर्यादा की परीक्षा🙏
👉एक बार अयोध्या में राघवेंद्र भगवान श्रीराम ने अपने पितरों का श्राद्ध करने के लिए ब्राह्मण-भोजन का आयोजन किया । ब्राह्मण-भोजन में सम्मिलित होने के लिए दूर-दूर से ब्राह्मणों की टोलियां आने लगीं । भगवान शंकर को जब यह मालूम हुआ तो वे कौतुहलवश एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर ब्राह्मणों की टोली में शामिल होकर वहां पहुंच गए और श्रीरामजी से बोले—‘मुझे भी भोजन करना है ।’
अन्तर्यामी भगवान श्रीराम बूढ़े ब्राह्मण को पहचान गए और समझ गए कि भगवान शंकर ही मेरी परीक्षा करने यहां पधारे हैं । ब्राह्मण-भोजन के लिए जैसे ही पंगत पड़ी, भगवान श्रीराम ने स्वयं उस वृद्ध ब्राह्मण के चरणों को अपने करकमलों से धोया और आसन पर बिठाकर भोजन-सामग्री परोसना शुरु कर दिया । छोटे भाई लक्ष्मणजी भगवान शंकर को जो भी वस्तु परोसते, शंकरजी उसे एक ही ग्रास में खत्म कर देते । उनकी पत्तल पर कोई सामान बचता ही नहीं था । सभी परोसने वाले उस बूढ़े ब्राह्मण की पत्तल में सामग्री भरने में लग गए, पर पत्तल तो खाली-की-खाली ही नजर आती । श्रीरामजी मन-ही-मन मुस्कराते हुए शंकरजी की यह लीला देख रहे थे ।
भोजन समाप्त होते देख महल में चिंता होने लगी गयी । माता सीता के पास भी यह समाचार पहुंचा कि श्राद्ध में एक ऐसे वृद्ध ब्राह्मण पधारे हैं, जिनकी पत्तल पर सामग्री परोसते ही साफ हो जाती है । श्राद्ध में आमन्त्रित सभी ब्राह्मणों को भोजन कराना भगवान श्रीराम की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया । माता सीता भी चिन्तित होने लगीं ।
जब बनाया गया सारा भोजन समाप्त हो गया फिर भी शंकरजी तृप्त नहीं हुए तो श्रीराम ने माता अन्नपूर्णा का स्मरण कर उनका आह्वान किया । सभी परोसने वाले व्यक्ति वहां से हटा दिये गये । माता अन्नपूर्णा वहां प्रकट हो गयीं ।
श्रीरामजी ने माता अन्नपूर्णा से कहा—‘अपने स्वामी को आप ही भोजन कराइए, इन्हें आपके अतिरिक्त और कोई तृप्त नहीं कर सकता है ।’
मां अन्नपूर्णा ने जब अपने हाथ में भोजन पात्र लिया तो उसमें भोजन अक्षय हो गया । अब वे स्वयं विश्वनाथ को भोजन कराने लगीं । मां अन्नपूर्णा ने पत्तल में एक लड्डू परोसा । भगवान विश्वनाथ खाते-खाते थक गये पर वह समाप्त ही नहीं होता था । मां ने दोबारा परोसना चाहा तो भगवान शंकर ने मना कर दिया । शंकरजी हंसते हुए डकार लेने लगे और बोले—‘तुम्हें आना पड़ा, अब तो मैं तृप्त हो गया ।’
मां अन्नपूर्णा काशी की अधीश्वरी हैं इसलिए वहां एक कहावत प्रचलित है—
‘बाबा-बाबा सब कहै, माई कहे न कोय।
बाबा के दरबार में माई कहैं सो होय ।।
अब शंकरजी श्रीरामजी से बोले—‘मैं इतना खा गया हूँ कि मुझसे अपने आप उठा नहीं जा रहा है । मुझे जरा उठाओ ।’ हनुमानजी अपने स्वामी का कार्य करने के लिए आगे बढ़े और शंकरजी को उठाने लगे परन्तु वे उन्हें उठा नहीं सके । श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी से शंकरजी को उठाने के लिए कहा ।
अनन्त के अवतार की शक्ति भी अनन्त होती है । लक्ष्मणजी ने शंकरजी को उठाकर एक पलंग पर लिटा दिया । अब शंकरजी ने कहा—‘मेरा मुख और हाथ धो दो ।’
माता सीता ने जैसे ही मुख धोने के लिए जल दिया, शंकरजी ने मुख में पानी भरकर माता सीता पर कुल्ला कर दिया । माता सीता क्रुद्ध होने के बजाय हाथ जोड़कर शंकरजी से बोली—‘आपके उच्छिष्ट जल के मेरे ऊपर गिरने से मेरा शरीर पवित्र हो गया, मैं आपकी बहुत आभारी हूँ ।’
अब भगवान शंकर ने श्रीराम को चरण दबाने की आज्ञा दी । श्रीराम और लक्ष्मण दोनों शंकरजी के चरण दबाने लगे और माता सीता पंखा झलने लगीं।
प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने कहा—‘मैंने तुम्हारी मर्यादा की परीक्षा ली जिसमें तुम सफल रहे । तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे मांग लो ।’
श्रीराम ने कहा—‘यद्यपि आपके पास जो चीजें हैं (विष का भोजन, विषधर सर्प, गजचर्म, बूढ़ा बैल, भूत-प्रेत पिशाच) वे हमारे किसी काम की नहीं हैं, इसलिए आप अपने चरणों की भक्ति दें और मेरी सभा में कथा सुनाया करें ।’
तब से शंकरजी राम सभा के कथावाचक बन गए और पूर्व कल्पों की कथाएं सुनाया करते थे !
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