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विश्व के प्रथम सन्यासी

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विश्व के प्रथम सन्यासी

भगवान श्री हरि विष्णु के अवतार “सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार” थे।

जिनकी आयु हमेशा 5 वर्ष की ही रहती हैं, न घटती हैं न बढ़ती हैं।

सृष्टि के प्रारम्भ में लोकपितामह ब्रह्मा ने विविध लोकों को रचने की इच्छा से तपस्या (उद्योग) की ।

लोकस्रष्टा के उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर विश्वाधार परमप्रभु ने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर –

“सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार”

इन चार निविृत्ति परायण ऊध्र्वरेता मुनियों के रूप में (ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में) अवतार ग्रहण किया ।

जब ब्रह्मा जी ने इन्हे उत्पन्न करके निर्देश दिए की जाओ और प्रजाबृद्धि करो।

तब चारों ऋषि कुमारो ने यह कहकर इंकार कर दिया कि “श्री हरि विष्णु की आराधना” के आलावा इन्हे कोई अन्य कार्य उचित नहीं लगता।

अतः हम केवल हरि भजन ही करेंगे अन्य कोई कार्य नहीं, यह कहकर चारों वहाँ से चले गए।

वे जहां भी जाते एक साथ जाते, और वें हमेशा हरि भक्ति में लीन रहते।

चारों भाइयों ने एक साथ ही शास्त्रों का अध्ययन किया, उसके कुछ समय पश्चात् भगवान विष्णु ने हंसावतार धारण करके उन चारों ऋषि कुमारों को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी।

इन चारों कुमारों ने अपना पहला उपदेश देवर्षि नारद को दिया, जिसके बाद नारद से अन्य ऋषियों ने प्राप्त किया, वास्तव में चारों वेद इन्ही चारों कुमारों का स्वरूप हैं, और यही चारों ऋषि ही वेद सामान माने गए हैं, क्योंकि आदिकाल में प्रलय के समय जो वेद लुप्त हो गए थे, उन वेदों को इन्ही चारों ऋषि कुमारों ने हंसावतार से प्राप्त किया।

इन्हे आत्मतत्व का सम्पूर्ण ज्ञान था, यही चार कुमार सनातन धर्म के प्रवर्तक आचार्य बने, और सनकादि नाम से प्रसिद्द हुए,

सनकादिक नाम से विख्यात चारों कुमारों के नाम में ‘सन’ शब्द हैं।
जिस का अर्थ है—
सनक —- पुरातन।
सनन्दन—-हर्षित,
सनातन—-जीवंत
सनत् ——चिर तरुण।

बुद्धि को अहंकार से मुक्ति का उपाय सनकादि से अभिहित हैं, केवल चैतन्य ही शाश्वत हैं।

चैतन्य मनुष्य के शरीर में चार अवस्थाएं—–
जाग्रत
स्वप्न
सुषुप्ति
तुरीय या प्राज्ञ
विद्यमान रहती हैं।

इस कारण मनुष्य देह चैतन्य रहता हैं।

इन्हीं चारों अवस्थाओं में विद्यमान रहने के कारण चैतन्य मनुष्य को—
सनक
सनन्दन
सनातन
सनत्
से संकेतित किया गया हैं।

ये चारों कुमार किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित हैं।

परिणाम स्वरूप इन्हें दिगंबर वृत्ति वाले जो नित्य नूतन और एक समान रहते हैं—-
“कुमार” कहा जाता है।
और
तत्त्वज्ञ—-तत्व ज्ञान से युक्त
योगनिष्ठ—योग में निपुण
सम-द्रष्टा—-सभी को एक सामान देखना तथा
ब्रह्मचर्य से युक्त होने के कारण इन्हें
ब्राह्मण—– ब्रह्मा-नन्द में निमग्न कहा जाता है।

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