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विरसा मुण्डा 9 जून बलिदान दिवस,

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विरसा मुण्डा 9 जून बलिदान दिवस,

दक्षिणी बिहार का क्षेत्र छोटानागपुर के नाम से जाना जाता है। यहाँ रहने वाली एक प्रमुख जाति मुण्डा कहलाती है।

उन्निहात् नामक गाँव में, सुगनामुण्डा के यहाँ,15 नवम्बर 1875 को विरसा का जन्म हुआ। विरसा के जन्म के कुछ दिनों बाद सुगनामुण्डा गाँव छोड़ आमूगानु नामक गाँव में जाकर बस गया। बालक विरसा बचपन से ही प्रतिभाशाली था।

आमूगानु गाँव के श्री जयपाल नाग अपना स्कूल चलाते थे। विरसा की भी प्रारम्भिक शिक्षा उसी गाँव में हुई। विरसा की प्रतिभा से जयपाल नाग बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ने की सलाह दी पर उस स्कूल में पढ़ने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था।
अतः विरसा के सारे परिवार ने चाईबासा जाकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। उसके बाद विरसा ने माध्यमिक शिक्षा के लिए, जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में प्रवेश ले लिया।

कुछ समय बाद विरसा को प्रसिद्ध वैष्णव भक्त श्री आनन्द पाण्डे का सानिध्य प्राप्त हुआ। उन्हीं के कारण उन्होंने धर्म ग्रन्थों का अनुशीलन करना प्रारंभ कर दिया। धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करके वे चार वर्ष तक, सत्य की खोज के लिए एकान्त स्थान पर कठोर साधना करते रहे।

साधना के बाद उनका रूप एकदम बदल गया। वे अब एक हिन्दू महात्मा की तरह पीली धोती, लकड़ी की खड़ाऊं, ललाट पर तिलक तथा यज्ञोपवीत धारण करते और अपने साथियों को भी वैसा ही करने के लिए प्रेरणा देते।

विरसा की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। उन्होंने धर्मान्तरित हुए अपने ईसाई वनवासी बन्धुओं को वापस हिन्दू धर्म की लौटने को कहा। उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेज़ शासकों से जंगलों पर अपना अधिकार वापस लेना होगा। विरसा के उपदेशों से वनवासी बन्धुओं ने मांसाहार और गो-हत्या त्याग दी तथा नित्यप्रति तुलसी की पूजा, रामायण का पाठ और सदाचारी बनना प्रारंभ कर दिया।

विरसा की लोकप्रियता देखकर अंग्रेज़ सरकार ने विरसा को एक षड्यंत्र कर बंदी बना लिया। उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असन्तोष फैल गया। अंग्रेज सरकार ने मुंडाओं पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया। 19 नवम्बर 1895 को विरसा को, दो साल के सश्रम कारावास की सजा हुई और उनके साथियों पर 20-20 रुपये का दण्ड लगा।

कारावास की अवधि में, विरसा के मन में विद्रोह ने जन्म लिया। 30 नवम्बर 1897 को विरसा मुक्त होकर चालकद आए। यहाँ आकर विरसा ने वनवासी बन्धुओं को शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज़ करने आदि जैसे कार्य करने का निर्देश देकर सशस्त्र क्रांति की तैयारी करने का निर्देश दिया।

24 दिसम्बर 1899 के दिन वनवासी बन्धुओं द्वारा की जाने वाली क्रांति का श्री गणेश हुआ। 24 दिसम्बर की रात को रांची से लेकर चाईबासा तक के पुलिस चौकी पर, ईसाई मिशनरियों तथा गोरे अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार हुई। सरवदा ईसाई मिशन का गोदाम जला दिया गया, 7 जनवरी 1900 के दिन खूंटी पुलिस थाने को आग लगा कर, भस्मसात कर दिया गया। घबराकर अंग्रेज़ों ने हजारीबाग और कलकत्ता से फौंजें बुलवा ली।

अंग्रेज़ी सेना और वनवासियों के बीच घमासान मारकाट हुई। वनवासी बन्धुओं के पास साधारण अस्त्र शस्त्र थे जबकि अंग्रेज़ सेना के पास बन्दूकें, बम आदि अधुनातन शस्त्र थे। इस क्रांति में विरसा के चार सौ अनुयायी मारे गए। चार सौ को बंदी बनाया गया। पर विरसा को गिरफ्तार नहीं किया जा सका। अंग्रेज़ सेना ने गाँव के गाँव उजाड़ दिये।

अन्ततः एक दिन रात्रि में सोते हुए विरसा को पुलिस ने बंदी बना लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर राँची जेल में रखा गया तथा असंख्या यातनाएं दी गई। अन्ततः 9 जून 1900 को प्रातः काल उन्हें ख़ून की उल्टी हुई और उनके शरीर का अंत हो गया। कुछ लोगों का मानना है कि जेल अधिकारियों ने विरसा को विष दिया था।

विरसा को छोटानागपुर के वनवासी अभी भी भगवान के रूप में पूजते हैं। उन्होंने 25 वर्ष के जीवन में, वनवासियों में जो स्वदेशी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेरणा जगाई, वह अतुल्य और अनुकरणीय है। धर्मांतरण, शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले इस महान नायक का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखे जाने योग्य है।

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