Publisher Theme
I’m a gamer, always have been.
Rajni

वीरांगना अवंतीबाई लोधी 16 अगस्त जयन्ती

30

वीरांगना अवंतीबाई लोधी 16 अगस्त जयन्ती ।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की एक वीरांगना हैं रानी अवंतीबाई लोधी. आज देश में बहुत से लोग हैं, जो इनके बारे में जानते भी नहीं हैं. लेकिन इनका योगदान भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अग्रणी नेता वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं हैं.

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को नजरअंदाज किया है, परंतु वीरांगना अवंतीबाई लोधी आज भी लोक-काव्यों की नायिका के रूप में हमें राष्ट्र के निर्माण, शौर्य, बलिदान व देशभक्ति की प्रेरणा प्रदान कर रही हैं. वीरांगना अवंतीबाई लोधी के अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष एवं बलिदान से संबंधित ऐतिहासिक जानकारी समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है.

वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी का जन्म पिछड़े वर्ग के लोधी राजपूत समुदाय में 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, जिला सिवनी के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था. वीरांगना अवंतीबाई लोधी की शिक्षा-दीक्षा मनकेहणी ग्राम में ही हुई. अपने बचपन में ही इस कन्या ने तलवारबाजी और घुड़सवारी करना सीख लिया था. लोग इस बाल कन्या की तलवारबाजी और घुड़सवारी को देखकर होते थे. वीरांगना अवंतीबाई बाल्यकाल से ही बड़ी वीर और साहसी थी. जैसे-जैसे वीरांगना अवंतीबाई बड़ी होती गईं, वैसे-वैसे उनकी वीरता के किस्से आसपास के क्षेत्र में फैलने लगे.

पिता जुझार सिंह ने अपनी कन्या अवंतीबाई लोधी का विवाह सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ़ रियासत जिला मंडला के राजकुमार से करने का निश्चय किया. जुझार सिंह की इस साहसी बेटी का रिश्ता रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह ने अपने पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य सिंह के लिए स्वीकार कर लिया. इसके बाद जुझार सिंह की यह साहसी कन्या रामगढ़ रियासत की कुलवधू बनी.

सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा और वीरांगना अवंतीबाई लोधी के ससुर लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई और राजकुमार विक्रमादित्य सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया. लेकिन कुछ सालों बाद राजा विक्रमादित्य सिंह अस्वस्थ रहने लगे. उनके दोनों पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह अभी छोटे थे, अत: राज्य का सारा भार रानी अवंतीबाई लोधी के कंधों पर आ गया. वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने वीरांगना झांसी की रानी की तरह ही अपने पति विक्रमादित्य के अस्वस्थ होने पर ऐसी दशा में राज्य कार्य संभालकर अपनी सुयोग्यता का परिचय दिया और अंग्रेजों की चूलें हिलाकर रख दीं.

इस समय लॉर्ड डलहौजी भारत में ब्रिटिश राज का गवर्नर जनरल था. लॉर्ड डलहौजी का प्रशासन चलाने का तरीका साम्राज्यवाद से प्रेरित था. लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अंतर्गत जिस रियासत का कोई स्वाभाविक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था, ब्रिटिश सरकार उसे अपने अधीन कर रियासत का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लेती थी. इसके अलावा इस हड़प नीति के अंतर्गत डलहौजी ने यह निर्णय लिया कि जिन भारतीय शासकों ने कंपनी के साथ मित्रता की है अथवा जिन शासकों के राज्य ब्रिटिश सरकार के अधीन हैं और उन शासकों के यदि कोई पुत्र नहीं है तो वह बिना अंग्रेजी हुकूमत की आज्ञा के किसी को गोद नहीं ले सकता.

अपनी राज्य हड़प नीति के तहत डलहौजी कानपुर, झांसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, संबलपुर, उदयपुर, करौली इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था. रामगढ़ की इस राजनीतिक स्थिति का पता जब अंग्रेजी सरकार को लगा तो उन्होंने रामगढ़ रियासत को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन कर लिया और शासन प्रबंध के लिए एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया. रामगढ़ के राजपरिवार को पेंशन दे दी गई.

इस घटना से रानी वीरांगना अवंतीबाई लोधी काफी दुखी हुईं, परंतु वह अपमान का घूंट पीकर रह गईं. रानी उचित अवसर की तलाश करने लगीं. मई 1857 में अस्वस्थता के कारण राजा विक्रमादित्य सिंह का स्वर्गवास हो गया. सन् 1857 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा तो क्रांतिकारियों का संदेश रामगढ़ भी पहुंचा. रानी तो अंग्रेजों से पहले से ही जली-भुनी बैठी थीं, क्योंकि उनका राज्य भी झांसी और अन्य राज्यों की तरह कोर्ट कर लिया गया था और अंग्रेज रेजीमेंट उनके समस्त कार्यों पर निगाह रखे हुई थी.

रानी ने अपनी ओर से क्रांति का संदेश देने के लिए अपने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख जमींदारों को चिट्ठी के साथ कांच की चूड़ियां भिजवाईं. उस चिट्ठी में लिखा था- देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बैठो. तुम्हें धर्म-ईमान की सौगंध, जो इस कागज का सही पता बैरी को दो.

सभी देशभक्त राजाओं और जमींदारों ने रानी के साहस और शौर्य की बड़ी सराहना की और उनकी योजनानुसार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया. जगह-जगह गुप्त सभाएं कर देश में सर्वत्र क्रांति की ज्वाला फैला दी. इस बीच कुछ विश्वासघाती लोगों की वजह से रानी के प्रमुख सहयोगी नेताओं को अंग्रेजों द्वारा मृत्युदंड दे दिया गया. रानी इससे काफी दुखी हुईं.

रानी ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और रानी ने अपने राज्य से कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधिकारियों को भगा दिया और राज्य एवं क्रांति की बागडोर अपने हाथों में ले ली. ऐसे में वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी मध्यभारत की क्रांति की प्रमुख नेता के रूप में उभरी. रानी के विद्रोह की खबर जबलपुर के कमिश्नर को दी गई तो वह आगबबूला हो उठा.

वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपने साथियों के सहयोग से हमला बोलकर घुघरी, रामनगर, बिछिया इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी राज का सफाया कर दिया. इसके बाद अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ के किले पर हमला बोल दिया जिसमें रीवा नरेश की सेना भी अंग्रेजों का साथ दे रही थी.

रानी अवंतीबाई की सेना अंग्रेजों की सेना के मुकाबले कमजोर थी, लेकिन फिर भी वीर सैनिकों ने साहसी वीरांगना अवंतीबाई लोधी के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना का जमकर मुकाबला किया. लेकिन ब्रिटिश सेना संख्या बल एवं युद्ध सामग्री की तुलना में रानी की सेना से कई गुना बलशाली थी अत: स्थिति को भांपते हुए रानी ने किले के बाहर निकलकर देवहारगढ़ की पहाड़ियों की तरफ प्रस्थान किया.

रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ के किले को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया और खूब लूटपाट की. इसके बाद अंग्रेजी सेना रानी का पता लगाती हुई देवहारगढ़ की पहाड़ियों के निकट पहुंची. यहां पर रानी ने अपने सैनिकों के साथ पहले से ही मोर्चा जमा रखा था. अंग्रेज़ी सेना ने चारों तरफ से रानी की सेना पर धावा बोला.

कई दिनों तक रानी की सेना और अंग्रेजी सेना में युद्ध चलता रहा जिसमें रीवा नरेश की सेना अंग्रेजों का पहले से ही साथ दे रही थी. रानी की सेना बेशक थोड़ी-सी थी लेकिन युद्ध में अंग्रेजी सेना की चूलें हिलाकर रख दी थी. इस युद्ध में रानी की सेना के कई सैनिक हताहत हुए और रानी को खुद बाएं हाथ में गोली लगी और बंदूक छूटकर गिर गई.

अपने आपको चारों ओर से घिरता देख वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए अपने अंगरक्षक से तलवार छीनकर स्वयं तलवार भोंककर देश के लिए बलिदान दे दिया. उन्होंने अपने सीने में तलवार भोंकते वक्त कहा कि हमारी दुर्गावती ने जीतेजी वैरी के हाथ से अंग न छुए जाने का प्रण लिया था. इसे न भूलना. उनकी यह बात भी भविष्य के लिए अनुकरणीय बन गई.

वीरांगना अवंतीबाई का अनुकरण करते हुए उनकी दासी ने भी तलवार भोंककर 20 मार्च 1858 को वीरांगना अवंती बाई लोधी के साथ अपना बलिदान दे दिया और भारत के इतिहास में इस वीरांगना अवंतीबाई ने सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिख दिया.

जब रानी वीरांगना अवंतीबाई अपनी मृत्युशैया पर थीं तो इस वीरांगना ने अंग्रेज अफसर को अपना बयान देते हुए कहा कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को मैंने ही विद्रोह के लिए उकसाया, भड़काया था उनकी प्रजा बिलकुल निर्दोष है. ऐसा कहकर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने हजारों लोगों को फांसी और अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार से बचा लिया.

मरते-मरते ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपनी वीरता की एक और मिसाल पेश की. नि:संदेह वीरांगना अवंतीबाई का व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र, संघर्ष शील तथा निष्कलंक था, उनकी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी ही वीरोचित थी.

ऐसी वीरांगना की जयन्ती पर उनको शत्-शत् नमन् और भावपूर्ण श्रद्धांजलि

Comments are closed.

Discover more from Theliveindia.co.in

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading