यज्ञ के तीन अर्थ – दान, संगतिकरण व देवपूजन: शंकराचार्य नरेन्द्रानन्द
यज्ञ के तीन अर्थ – दान, संगतिकरण व देवपूजन: शंकराचार्य नरेन्द्रानन्द
यज्ञ एक जीवनदर्शन और कर्म सम्पादन की प्रेरणा के रूप में यज्ञ की मान्यता
यज्ञीय जीवन सहकार व सह-अस्तित्व के मूल्यों से युक्त एक प्रवाहमान अवस्था
यज्ञ आत्म शुद्धि की सूक्ष्म व गुह्य प्रक्रिया , यज्ञ का एक और अर्थ त्याग भी
फतह सिंह उजाला
गुरूग्राम। यज्ञ के तीन अर्थ- दान, संगतिकरण व देवपूजन है । यज्ञ एक जीवनदर्शन है, कर्म सम्पादन की शुभ्र व सप्राण प्रेरणा के रूप में यज्ञ की मान्यता है । यज्ञार्थ कर्म से कर्त्ता के कर्म ही आहुति रूप होकर परमार्थ के विराट कुण्ड में अर्पित किए जाते हैं। कामना, लोभ व निष्क्रियता से रहित जीवन क्रम यज्ञमय बनता है, जो संकीर्णता जन्य असंतोष से मुक्ति प्रदान करने वाला है। यज्ञीय जीवन सहकार व सह-अस्तित्व के मूल्यों से युक्त एक सतत प्रवाहमान अवस्था है, जिसमें हर क्षण कर्म व्यक्त व विलीन होते हैं। इसे अर्पण द्वारा आरोहण की क्रिया माना गया है, जिसमें चेतना निम्न स्वभाव से उच्च व उच्चतर रूपों की ओर बढ़ती है। प्रयागराज में त्रिवेणी मार्ग स्थित शिविर में बीती 10 जनवरी से अनवरत चल रहे श्री रूद्र महायज्ञ के समापन अवसर पर यह ज्ञानोपदेश श्री काशी सुमेरु पीठाधीश्वर अनन्त श्री विभूषित पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने उपस्थित साधु-संतो, विद्वानो, मनीषियों सहित श्रद्धालुओं को अपने आशिर्वचन में दिया।
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शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द ने अपने निजी सचिव स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती के माध्यम से मीडिया के नाम जारी धर्म संदेश में कहा है यज्ञ एक ओर साधनों का महत प्रयोजन के लिए संधान है, जो कर्मयोग का पर्याय बनता है। दूसरी ओर आत्म शुद्धि की सूक्ष्म व गुह्य प्रक्रिया , यज्ञ का एक अर्थ त्याग भी है। त्याग मम भाव का किया जाता है। यह भाव अविद्या के कारण उत्पन्न होकर अनात्म तत्वों में आत्म भाव आरोपित करता है। यह आरोपण ही अहंकार की ग्रंथि है, जो बंधन का कारण है। शंकराचार्य नरेंद्रानंद महाराज ने कहा कि सामान्य रूप से त्याग किसी वस्तु से संबंधित मान लिया जाता है। वस्तु का त्याग, त्याग का एक स्थूल प्रतीक मात्र है। वस्तु या पद के साथ अथवा इनके बिना भी यदि अनात्म तत्वों जैसे तीन गुणों और इनकी क्रियाशीलता में से आत्म भाव का त्याग कर दिया जाए तो मिथ्या ज्ञान के कारण उत्पन्न यह आरोपण की ग्रंथि भी कट जाती है और इस मनोभूमि में किया गया कर्म बंधन का कारण नहीं बनता है।
“सहयज्ञाः प्रजारू सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः-अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्। अर्थात प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ, और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।
उन्होंने कहा प्रजाओं को रचने के साथ यज्ञ भी रच दिया। यज्ञ प्रजा का भाई हुआ। प्रजाओं की वृद्धि के निमित्त ही यज्ञ आया। यज्ञ के द्वारा उन प्रजाओं की वृद्धि हो सके, भोग की प्राप्ति भी इसी से हो। प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचा। यज्ञ द्वारा प्रजाओं की वृद्धि करने का सूत्र दिया, और यह यज्ञ इच्छित भोग प्रदान करने वाला है। शंकराचार्य नरेंद्रानंद महाराज के कृपापात्र शिष्य यज्ञ सम्राट सार्वभौम विश्वगुरु स्वामी करुणानन्द सरस्वती महाराज ने कहा कि परमात्मा का क्रियात्मक स्वरूप यज्ञ प्रक्रिया के रूप में मिलता है। वह यज्ञ में स्वयं प्रतिष्ठित होकर वैश्विक क्रियाओं का संचालन करने वाले हैं। पारिस्थिति की तंत्र के परस्पर सहयोग की प्रवृत्ति यज्ञ की उपरोक्त प्रक्रिया की स्थूल अभिव्यक्ति ही है। श्री रूद्र महायज्ञ के समापन अवसर पर स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती जी महाराज, स्वामी दिनेशानन्द महाराज, सुनील शुक्ल, विनोद त्रिपाठी सहित पंडित प्रदीप तिवारी (आचार्य) के साथ सभी वैदिक विद्वान- पंडित विजय शुक्ल, पंडित कार्तिक, पंडित शंकर दयाल मिश्र, पंडित शिव दयाल मिश्र, पंडित रोहित तिवारी, पंडित शिवम् दूबे, पंडित शिवम् द्विवेदी, पंडित सर्वेश मिश्र, पंडित सन्दीप मिश्र, पंडित बृजेश उपाध्याय, पंडित शेषमणि शुक्ल, पंडित कृष्णा शुक्ल, पंडित सुग्गू , पंडित अनुज मिश्र, पंडित सुशील उपाध्याय, पंडित प्रभाकर, पंडित मनोज पाण्डेय सहित अनेक श्रद्धालू मौजूद रहे।
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