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जो आत्मबोध कराए, जो सुबोध कराए वो गुरु है: गौप्रेमी आचार्य मनीष शर्मा

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प्रधान संपादक योगेश

हर वर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि पर गुरु पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है. महर्षि वेद व्यास जी का जन्मदिन भी इसी दिन माना जाता है
महर्षि वेद व्यास जी को प्रथम गुरु की भी उपाधि दी जाती है क्योंकि गुरु व्यास ने ही पहली बार मानव जाति को चारों वेदों का ज्ञान दिया था. जीवन को सुंदर बनाना, निष्काम और निर्दोष करना ही सबसे बड़ी विद्या है. इस विद्या को सिखाने वाला ही सद्गुरु कहलाता है.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का अनगढ़ टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। जैसे कुम्भकार घड़ा बनाते वक्त बाहर से तो चोट मारता है और अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता हैं की कहीं कुम्भ टूट ना जाए, इसी भाँती गुरु भी उसके अवगुण को तो दूर करते हैं, उसके अवगुणों पर चोट करते हैं, लेकिन अंदर से उसे सहारा भी देते हैं, जिससे कहीं वह टूट ना जाए।
जो अज्ञानता से दूर कर ज्ञान की ओर ले जाने वाला गुरु होता है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु ही होता है हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु दृ शिष्य परंपरा को निभाने वाले सभी धर्ममतों में गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाने की परंपरा रही है।
हम गुरु पूर्णिमा दो उद्देश्यों से मनाते हैं. प्रथम, हम स्वयं को अपनी आध्यात्मिक परंपरा का स्मरण दिलाते हैं. द्वितीय, हम इम माध्यम से उन उच्चतर शक्तियों से संपर्क स्थापित करने का प्रयास करते हैं जो आध्यात्मिक विकास में हमारा मार्गदर्शन करती हैं. गुरु वे हैं जिन्होंने अपनी चेतना को पूर्णतया रूपांतरित कर दिया है.
वे भौतिक रूप से इस संसार में रहते हैं, किंतु उनकी आत्मा सदैव, स्थान और काल के परे, उच्चतम आयामों में विचरण करती रहती है. अपने विकास-चक्र को पूरा कर लेने के कारण उनके लिए कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता. फिर भी वे मानवता की चेतना का स्तर ऊंचा उठाने के लिये कार्य करते रहते हैं.
गुरु परंपरा आधुनिक नहीं है, यह सर्वाधिक प्राचीन है. मनुष्य की उत्पत्ति के पूर्व भी प्रकृति के रूप में गुरु का अस्तित्व था, जो ऋतुओं, वनस्पतियों और अन्य प्राणियों का मार्गदर्शन करती थी.
गुरु-शिष्य संबंध निश्चित रूप से मानवीय विकास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है. यह संबंध समस्त संप्रदायों, संगठनों और संस्थाओं का आधार है, चाहे वे आध्यात्मिक हों या कोई और. जब हम भूतकाल की समृद्ध संस्कृतियों तथा वर्तमान संस्कृतियों के बारे में विचार करते हैं तो पाते हैं कि वे भी इसी महत्वपूर्ण संबंध पर आधारित रही हैं. समस्त परंपराएं, कला और विज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु से शिष्य को, शिक्षक से छात्र को तथा पिता से पुत्र को हस्तांतरित होती रही हैं.
गुरु-शिष्य संबंध मानव अस्तित्व के महत्तर आयामों, श्रेष्ठतर क्षमताओं से संबद्ध है. इसके बिना हम बाह्य जगत की विभिन्नताओं में निराशाजनक रूप से खो जायेंगे. गुरुओं एवं शिक्षकों की रक्षात्मक कृपा ही उस आंतरिक स्नेत की ओर हमारा मार्गदर्शन करती है जहां से हमारी समस्त उच्चतर शक्तियां, निरूसृत होती हैं. यही कारण है कि महान शिक्षकों को श्रेष्ठतर संस्कृतियों की आधारशिला माना गया है. उनके ज्ञान और प्रेरणा के बिना न तो परंपराएं टिक सकेंगी और न संस्कृतियां जीवित रह सकेंगी.
भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक, हम गुरुओं और ऋषियों को अपनी सांस्कृतिक परंपरा की शक्ति और प्रकाश मानते रहे हैं. उन्होंने जो कुछ सिखाया तथा वेदों, उपनिषदों और तंत्रों में जो भी लिखा वह सारहीन दर्शन नहीं, बल्कि जीवन का एक पूर्ण विज्ञान है. उन्होंने लोगों को संयम, आत्मनियंत्रण, अंतर्दृष्टि एवं आत्मज्ञान द्वारा जीवन की पूर्णता प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया. यदि सभी लोग इन गुणों को अपना लें तो आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी संस्कृति कितनी उन्नत हो जायेगी. हम अपने को एक आदर्श लोक में पायेंगे.
हमारे ऋषि-मुनियों के मन में ऐसी ही समृद्ध संस्कृति के निर्माण की कल्पना थी. व्यक्ति गुरुकृपा से अपने व्यक्तित्व का पुनर्निर्माण कर सकता है तथा अपने बोध के दरवाजे खोल सकता है.जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के बरतनों को मजबूत बनाने के लिए उन्हें आग में पकाता है उसी प्रकार गुरु असुरक्षित एवं असंवेदनशील मन को सशक्त बनाता है.
भगवान ने भी मनुष्य जन्म लेकर गुरुओ की सेवा की, उनकी आज्ञा पालन कर समर्पण किया, हर युग में गुरु का महत्च रहा है, हम अपनी गौरवशाली गुरु शिष्य परंपरा का पालन करते हुए आगे बढ़े,
अपने सद्गुरु को वन्दन, करते हुए आप सभी को गुरुपूर्णिमा की अनन्त शुभकामनाएं..
शुभमस्तु-

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