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गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन और चैत्र की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है

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गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन और चैत्र की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है।

देवी भागवत् में गायत्री की तीन शक्तियों का- ब्राह्मी,वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में निरूपण किया गया है और नारी वर्ग की चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए,उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत माहात्म्यों का वर्णन किया है।सौर मंडल के नौ ग्रह हैं।

सूक्ष्म शरीर के छः चक्र और तीन ग्रन्थि समुच्चय विख्यात हैं,इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है। इन सबकी अलग-अलग अभ्यर्थनाओं की रूप- रेखा साधन शास्त्रों में वर्णित है ।

गायत्री के नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है कि इनसे किस पक्ष की, किस प्रकार साधन की जाये, तो उसके फलस्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्य शक्तियों की उपलब्धि होती रहे ।

अष्टसिद्धियों और नौ निधियों को इसी परिकर के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है ।

अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवी सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन-निरूपण करते हैं,उन सबकी संगति गायत्री मंत्र के खण्ड-उपखण्डों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है ।

देवी भागवत् सुविस्तृत उपपुराण है। उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा श्रंखला है। उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है। ऋषि युग के प्रायः सभी तपस्वी गायत्री का अवलम्बन लेकर ही आगे बढ़े हैं।

मध्याह्नकाल में भी ऐसे सिद्ध पुरुषों के अनेक कथानक मिलते हैं,जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्धियाँ-विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलम्बित है ।

👉यदि इन्हीं दिनों इस संदर्भ में अधिक जानना हो तो अखण्ड ज्योति संस्थान,मथुरा द्वारा प्रकाशित गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्डों का अवगाहन किया जा सकता है। साथ ही यह भी खोजा जा सकता है कि उस ग्रन्थ के प्रणेता पं. श्रीराम आचार्य ने सामान्य व्यक्तित्व और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने बड़े और कितने महत्वपूर्ण कार्य कितनी बड़ी संख्या में सम्पन्न किये हैं। उन्हें कोई समर्थ व्यक्ति,यों पांच जन्मों में या पांच शरीरों की सहायता से ही किसी प्रकार सम्पन्न कर सकता है।

अन्यान्य धर्मों में अपने-अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक-एक ही प्रमुख मंत्र हैं भारतीय धर्म का भी एक ही उद्गम स्रोत है- गायत्री। उसी के विस्तार रूप में पेड़ के तने,टहनी,पत्ते फल-फूल आदि के रूप में वेद,शास्त्र,पुराण, उपनिषद्,स्मृति,दर्शन,सूक्त आदि का विस्तार हुआ है ।

एक से अनेक और अनेक से एक होने की उक्ति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान से सम्बन्धित अनेकानेक दिशा-धाराओं से सम्बन्धित साधनाओं की विवेचना करके विभिन्न पक्षों को देखते हुए विस्तार-रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है ।

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