तात्या टोपे 17 अप्रैल,1859 बलिदान दिवस
तात्या टोपे 17 अप्रैल,1859 बलिदान दिवस
तात्या टोपे का जन्म सन् 1814 ई.में नासिक के निकट पटौदा ज़िले के येवला नामक गांव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम राम चंद्र पाण्डुरंग राव था। इनका एक सगा भाई तथा छः सौतेले भाई और चार बहनें थीं।
तात्या भारत के प्रथम स्वाधीनता के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन् 1857 के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण, प्ररेणादायक और बेजोड़ थी। 1857 के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी। शीघ्र ही क्रान्ति की चिंगारी समूचे उत्तर भारत में फैल गई।
जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े। बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकडि़यों को संगठित किया। कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था। तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली। अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।
इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया। तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही। इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये।
अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया। तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं।
इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा; पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये। अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी। नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई। 7 अप्रैल,1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया। ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।
सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।’’
अन्ततः 17 अप्रैल 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी। लेकिन बहुत से इतिहासकारों का मत है कि तात्या कभी पकड़े ही नहीं गये। जिसे फाँसी दी गई वह नारायण राव थे,जो तात्या को बचाने हेतु स्वयं फाँसी चढ़ गये। इस विषय में अभी भी बहुत शोध की आवश्यकता है।
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