स्वामी विवेकानंद 4 जुलाई पुण्य-तिथि.
स्वामी विवेकानंद 4 जुलाई पुण्य-तिथि.
स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता में हुआ था. इन का बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था. इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे. इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी जी बडे़ ही धार्मिक विचारों वाली थी.
नरेंद्र की बुद्धि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी बड़ी तीव्र थी. इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ. वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे.
दैवयोग से नरेंद्र के पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गयी. घर का भार नरेंद्र पर आ पडा़. घर दशा बड़ी दयनीय थी. लेकिन अत्यंत दरिद्रता में भी नरेंद्र बडे़ अतिथि-सेवी थे. स्वयं भूखा रहकर भी अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में भीगते- ठिठुरते पड़े रहते परन्तु अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते.
स्वामी विवेकानंद अपना जीवन अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे. गुरु देव का शरीर अंतिम दिनों में अत्यन्त रुग्ण हो गया था. वे गुरु के बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे. गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके.
25 वर्ष की आयु में नरेंद्र ने भगवा (गेरुआ) वस्त्र धारण कर लिये. तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारत वर्ष की यात्रा की. सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म सम्मेलन हो रहा था. स्वामी विवेकानंद उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे. योरोप-अमेरिका के लोग उस समय भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे.
वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही ना मिले. लेकिन एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला. उनके पास केवल 5 मिनट का ही बोलने का समय था. उन्होंने अपना भाषण अमेरिकन भाईयों और बहनों से सम्बोधित किया. जैसे ही वहाँ बैठे लोगों ने अपने लिए भाईयों और बहनों का शब्द सुना तो 15 मिनट तक तालियों से सारा सभागार गूँजता रहा.
स्वामी विवेकानंद के विचार सुनकर सभी विद्वान चकित रह गये. स्वामी जी ने कहा – मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है. हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों का सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं. मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का गर्व है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है.
मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था. जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था. ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अबतक कर रहा है.
फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ. वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया. तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्व ज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे.
उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया. स्वामी विवेकानंद का यह दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा. अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित की. अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया.
गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िये. उनमें आप सबकुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं
रोमा रोलाँ ने उनके बारे में कहा था, उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है. वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम हुए. हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता.
स्वामी विवेकानंद मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेज़ी शिक्षा व्यवस्था के घोर विरोधी थे. स्वामी जी कहते थे कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत:-
- शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो.
- शिक्षा ऐसी हो जिसमें बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने.
- बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए.
- धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए.
- पाठ्यक्रम में लौकिक एवं परलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए.
- शिक्षा, गुरु गृह में प्राप्त की जा सकती है.
- शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए.
- सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जाना चाहिए.
- देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाये.
- मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए.
स्वामी विवेकानंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्त्रोत बने. उनका विश्वास था कि पवित्र भारत वर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्य-भूमि है. यहीं पर बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है. यहीं केवल यहीं आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है. उन्होंने कहा था —
उठो जागो, स्वयं जागकर ओरों को जगाओ. अपने मनुष्य-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाये.
4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधी धारण कर ज्योतिजोत समा गये. उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की
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