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सुभद्राकुमारी चौहान 16 अगस्त जयन्ती.

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सुभद्राकुमारी चौहान 16 अगस्त जयन्ती.
सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर में हुआ था. पिता रामनाथ सिंह ज़मींदार थे लेकिन पढ़ाई को लेकर जागरूक भी थे. अपनी प्रतिभा को दिखाते हुए सुभद्रा ने भी बचपन से ही कविता कहना शुरू कर दिया था. पहली कविता 9 वर्ष की आयु में छपी जिसे उन्होंने एक नीम के पेड़ पर ही लिख दी थी.

यह कविता थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी… अपने बचपन के दिनों में आपने भी यह कविता अवश्य सुनी होगी और उसे गाकर भी सुनाया होगा. कवियत्री सुभद्राकुमारी चौहान की लिखी कविता में देश की उस वीरांगना के लिए ओज था, करुण था, स्मृति थी और श्रद्धा भी. इसी एक कविता से उन्हें हिन्दी कविता में प्रसिद्धि मिली और वह साहित्य में अमर हो गई.

भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन में भागीदारी के दौरान उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से दूसरों को अपने देश की सम्प्रभुता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया और कईं बार जेल गई.

जब गाँधी जी समूचे देश में अपने आन्दोलन को लेकर आह्वान कर रहे थे तब सुभद्राकुमारी ने भी अपना योगदान दिया. वह एक राष्ट्रवादी कवियत्री ही नहीं एक देश भक्त महिला भी थीं. जलियांवाला बाग में वसंत उन्होंने लिखा:-
परिमलहीन पराग दाग-सा बना पड़ा है,
हाँ! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है.
आओ प्रिय ऋतुराज किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना.
कोमल बालक मरे यहाँ खा-खाकर,
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर.

सुभद्राकुमारी का विवाह लक्ष्मण सिंह के साथ तय हुआ था. लक्ष्मण सिंह एक नाटककार थे और उन्होंने अपनी पत्नी की प्रतिभा को आगे बढ़ने में सदैव उनका साथ दिया. सुभद्राकुमारी महिलाओं के बीच जाकर उन्हें स्वदेशी अपनाने व तमाम संकीर्णताएँ छोड़ने के लिए प्रेरित करती थीं. अपनी गृहस्थी को सम्भालते हुये वह साहित्य और, समाज की सेवा करती थीं.

उन्होंने तीन कहानी संग्रह लिखे जिनमें बिखरे मोती, उन्मादिनी और सीधे साधे चित्र शामिल हैं. कविता संग्रह में मुकुल, त्रिधारा आदि शामिल हैं. उनकी बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचन्द के बेटे अमृतराय से हुआ, उन्होंने अपनी माँ की जीवनी लिखी जिसका नाम मिले तेज से तेज है.🇮🇳🪔
हम सभी को व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना का परित्याग कर राष्ट्र के नव निर्माण में अपना सर्वोत्तम कर्त्तव्य कर्म करने का यत्न करना चाहिए।
मैं अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से समाज की भावी पीढ़ी को संस्कारित करके अपने मानव होने की जिम्मेदारी ईमानदारीपूर्वक निभा रहा हूँ ।

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