श्रीकृष्ण शयन-कक्ष में कुछ खोज रहे हैं। बार-बार तकिये को उठाकर देख रहे हैं। नीलाभ वक्षपर रह-रहकर कौस्तुभमणि झूलने लगती है।
( रुक्मिणी जी का प्रवेश होता है )
रुक्मिणी जी– प्रभो ! आज्ञा करें।
दासी के होते हुए द्वारिकानाथ स्वयं क्या खोज रहे हैं?
श्रीकृष्ण कमर पर हाथ रखकर बोले:-
देवी ! यहीं रखे थे वे वस्त्र, कहाँ गये वे वस्त्र ?
प्रभु की आँखों में अश्रु भर आये।
रुक्मिणी :– कौन से वस्त्र स्वामी, आपके शयन-सज्जा की सेवा दासी ही करती प्रभु कैसे वस्त्र थे ?
श्रीकृष्ण :– वे ही जो हमारे सुदामा पहनकर आये थे।
हमने रात को तकिये के निचे रखे थे।
रुक्मिणी :– आपकी व्यवस्था मेंकोई कैसे हस्तक्षेप कर सकता है ?
विप्रदेव के वस्त्र यहीं रखे हैं, आप विराजें, मैं देती हूँ।
देवी रुक्मिणी ने धुली हुई फटी धोती, एक झोलीनुमा वस्त्र-खण्ड —दोनों को प्रस्तुत कर दिया।
श्रीकृष्ण :– किन्तु देवी ! ये वस्त्र हमें क्यों नहीं दिखे ?
रुक्मिणी :– क्षमा करें नाथ ! आज आपके मित्र जा रहे हैं, सो मित्र वियोग के कारण आपके नेत्र सजल हो गये हैं।
अश्रुपूरित नेत्र होने के कारण वस्त्र अदृष्ट रह गये होंगे।
श्रीकृष्ण :– वस्त्रों को हृदय से लगाते हुए बोले:- धन्य हो देवी !
उत्तरीय पर अश्रुबिंदु टपक पड़े।
रुक्मिणी :– द्वारिकानाथ के मित्र, द्वारिकाधीश के राजमहल से इन्हीं वस्त्रों को पहनकर प्रस्थान करेंगे ?
श्रीकृष्ण :– हाँ देवी ! आये भी तो इन्हीं को पहनकर थे।
रुक्मिणी :– ये कैसी लीला है स्वामी ! जब विप्रदेव आये थे तब और बात थी, अब कुछ और है।
अब पूरी द्वारिका जानती है कि वे आपके बालसखा हैं, प्रिय मित्र हैं।
श्रीकृष्ण :– शान्त क्यों हो गयीं ? बोलो ना।
अपने प्रियजनों की कथा सुनना किसे प्रिय नहीं लगता।
रुक्मिणी ने उत्तरीय से प्रभु के आँसू पोंछे ।
रुक्मिणी :– जिनके प्रेम में प्रभु के आँसू नहीं रुक रहे हैं, उन्हें इन्हीं वस्त्रों में विदा करेंगे कृपानिधान ?
जब नगर के राजपथ पर द्वारिकाधीश के साथ एक निर्धन ब्राह्मण को रथ पर बैठे देखेंगे तो महाजन, राज्यकर्मचारी और प्रजाजन क्या कहेंगे ?
आपकी भक्तवत्सलता को सारा संसार जानता है।
मेरी विनती है कि ब्राह्मण देवता द्वारिकाधीश के मित्र की भाँति पुरे ऐश्वर्य के साथ प्रस्थान करें।
श्रीकृष्ण :– हमारे भक्तों का हमारे ऐश्वर्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
कभी था भी नहीं-
रुक्मिणी :– हमारा तो है प्रभो ! हमारी प्रार्थना पर विचार करें।
श्रीकृष्ण :– वही तो कह रहा हूँ देवी ! कहीं हमारे ऐश्वर्य से गरीब सुदामा का प्रेम आच्छादित न हो जाये, कहीं प्रभुता के समक्ष मित्रता लज्जित न हो जाये।
देवी ! सुदामा यदि धनवान होकर लौटा तो इससे अधिक लज्जाजनक बात उसके लिए कोई न होगी।
रुक्मिणी :– किन्तु लोग आपको क्या कहेंगे ? आपके द्वार से दरिद्र कभी दरिद्र नहीं लौटा, भिखारी कभी भिखारी नहीं लौटा…. और आपके मित्र….।
श्रीकृष्ण :– और तुम हमारे मित्र को भिखारी बनाकर लौटाना चाहती हो।
तुम चाहती हो लोग कहें कि द्वारिका के राजा कृष्ण ने दरिद्र सुदामा को धनवान बनाकर विदा किया।
लोग सोचेंगे सुदामा वैभव की याचना लेकर द्वारिका आया था।यह असत्य है – असत्य है।
मेरे मित्र सुदामा ने कभीधन-वैभव की याचना नहीं की –कभी नहीं की।
इतिहास कहेगा सुदामा कृष्ण के द्वार का भिखारी था…. असम्भव ऐसा कभी नहीं होगा।
यह हमारे स्वाभाव के विरुद्ध है, हमारे प्रण के प्रतिकूल है।
रुक्मिणी :– क्षमा करें दयासागर ! क्षमा करें।
द्वरिकावासी जब कहेंगे महादानी यदुवंशचन्द्र श्रीकृष्ण अपने बाल-सखा को एक पीताम्बर भी न पहना सके।
द्वार से विप्र को नंगे पाँव विदा कर दिया – तब हम इन उपलम्भों को कैसे सहन करेंगी ?
श्रीकृष्ण :– आँखों में विवशता भरकर बोले– हम विवश हो गए हैं महारानी ! हम क्या करें ?
हम जानते हैं, इतिहास कहेगा कि वृष्णिवंश के एक प्रतापी नरेश ने अपने एक मित्र को अत्यन्त विपन्न स्थिति में अपने द्वार से विदा कर दिया, किन्तु एतिहास यह कभी न कहेगा कि जिसके चरणों को कृष्ण ने अपने आँसुओं से धोया, उस दिन ब्राह्मण को अपने द्वार से खाली हाथ क्यों विदा कर दिया ?
हम जानते हैं देवी।
रुक्मिणी :– नाथ ! जिनके स्वागत के लिए आप नंगे पाँव दौड़ते गए थे, वे विप्रदेव क्या क्या नंगे पाँव ही राजपथ पर….।
श्रीकृष्ण :– देवी ! हमारी विवशता को समझने का प्रयत्न करो।
क्या हम मित्र को मित्र के द्वारा भिखारी बन जाने देते?
हमारा प्रिय सुदामा हमें चार मुट्ठी चावल देकर जा रहा है।
उसके सहज स्नेह और वैराग्य ने हमें अपने हृदय में बन्दी बना लिया।
भगवान अश्रुपात कर रहे है और आगे कहते है
उन चार मुट्ठी चावलों का प्रत्युपहार देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है।
रुक्मिणी :– भक्तवत्सल भगवान् की जय।
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