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राजा का धर्म वैदिक जीवन दर्शन का प्रसार करना: शंकराचार्य नरेंद्रानंद

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राजा का धर्म वैदिक जीवन दर्शन का प्रसार करना: शंकराचार्य नरेंद्रानंद

परशुराम ने तीर चला गुजरात से केरला तक समुद्र को पीछे ढकेला

भगवान परशुराम ब्राह्मण के रूप में जन्में, लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय

कोंकण, गोवा और केरल में हैं भगवान परशुराम सर्वाधिक वंदनीय

भारत के अधिकांश ग्राम भगवान परशुराम के द्वारा ही बसाये गए

फतह सिंह उजाला
गुरूग्राम। 
भगवान विष्णु के छठें अवतार भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट है, हय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से 21 बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं । वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे ढकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया, और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरल में भगवान परशुराम वंदनीय हैं। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। भगवान परशुराम का कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है, ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे, लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। काशी सुमेरु पीठाधीश्वर अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने यह बात ग्राम-नवानगर (शंकरपुर), जनपद-बलिया में पंडित शिवा शंकर चौबे द्वारा आयोजित भगवान परशुराम एवं आदिगुरु शंकराचार्य के विग्रहों के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के मौके पर कही। यह जानकारी शंकराचार्य नरेंद्रानंद के निजी सचिव स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती महाराज के द्वारा मीडिया से सांझा की गई है।

परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार
शंकराचार्य नरेंद्रानंद महाराज ने कहा कि भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। भगवान परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं । वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है। सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलियुग में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म और आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षित कर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर, विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ, परकाय प्रवेश कर, नारद कुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकट कर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राज सिंहासन समर्पित कर सप्ताम्नाय-सप्तपीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया ।

परशुराम ने परिभ्रमण का उपदेश दिया
भगवान परशुराम ने व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य सुनिश्चित किया। शंकराचार्य नरेंद्रानंद के कार्यक्रम में पधारने पर आयोजक पंडित शिवा शंकर चौबे , अभिनव चौबे एवं सहयोगी लालजी पाण्डेय आदि ने वैदिक विधि अनुसार शंकराचार्य नरेंद्रानंद का पूजन-आदर सत्कार किया। 
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