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सती संशय प्रसंग

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सती संशय प्रसंग

माता सती को देखकर प्रभु श्रीराम क्या करते हैं ? तत्पश्चात् क्या कहते हैं ? – इसका तुलसीदास जी ने बड़े ही सुंदर ढंग से चौपाई छंद में वर्णन करते हैं : —
जोरि पानि प्रभु किन्ह प्रनामू।
पिता समेत लीन्ह निज नामू।।
कहेउ बहोरि कहां बृषकेतू।
बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।

हम सभी जानते हैं कि चौपाई के चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६ – १६ मात्राएं होती हैं क्योंकि चौपाई एक मात्रिक छंद है। उपर्युक्त चौपाई के अंतर्गत प्रभु श्री राम का विलक्षण व्यक्तित्व प्रकट हुआ है । आइए ! इस पर दृष्टिपात करें।

चौपाई के प्रथम चरण में प्रभु श्री राम ने हाथ जोड़कर सीता रूपी सती को प्रणाम किया। कोई कभी अपनी पत्नी को प्रणाम नहीं करता। प्रणाम – निवेदन ही यह बताता है कि प्रभु ने माता सती को पहचान लिया है। दूसरे चरण में वे अपना परिचय अपने पिता के नाम के साथ देते हैं क्योंकि उनका परिचय तो सर्वसाधारण – जन के बीच अयोध्यानरेश दशरथ पुत्र राजकुमार राम के रूप में होता है।

तीसरे चरण में सती को अकेली देखकर प्रभु श्री राम माता सती से पूछ ही बैठते हैं कि वृषकेतु शिव जी कहां हैं ? अप्रत्यक्ष रूप से यह संकेत दे रहे हैं कि मैं तो अपनी पत्नी सीता को खोजने के लिए वन में विचर रहा हूं। तो क्या आप भी अपने स्वामी महादेव शिव जी से बिछुड़ गई हैं ?

इसे और भी स्पष्ट करते हुई चौपाई के चौथे चरण में प्रभु श्री राम कह ही डालते हैं – ” आप जंगल में अकेले क्यों घूम रही हैं ? ” एक तरह से वे यह कहना चाह रहे हैं क्या आप भी अपने स्वामी शिव जी को ढूंढ रही हैं , जैसे मैं अपनी पत्नी सीता को ढूंढ रहा हूं।

इसके बाद माता सती ने क्या किया ? इसे तुलसीदास जी दोहे के माध्यम से यों प्रकट करते हैं –
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदय बड़ सोचु।।
अर्थात् श्री रामचंद्र जी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सती जी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चल पड़ीं। उनके हृदय में बड़ी चिंता हो गई।

माता सती मन ही मन कहती हैं –
मैं संकर कर कहा न माना ।
निज अग्यानु राम पर आना।।
अर्थ – मैंने शंकर जी का कहना न माना और अपनी अज्ञानता का आरोप श्री रामचंद्र जी पर कर दिया।

जब माता सती अपने स्वामी महादेव शंकर जी के पास वापस लौटने लगी , तो एक अलौकिक घटना घटी ।
उसे तुलसीदास जी इस प्रकार दर्शाते हैं –
सतीं दीख कौतुकु मग जाता ।
आगे रामु सहित श्री भ्राता ।।
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा ।
सहित बंधु सिय सुंदर बेसा।।
अर्थ – सती जी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि सीता जी और लक्ष्मण जी सहित श्रीराम जी आगे चले जा रहे हैं। तब उन्होंने ( माता सती ने) पीछे की ओर घूम कर देखा , तो वहां भी भाई लक्ष्मण एवं सीता जी के साथ श्री रामचंद्र जी सुंदर वेश में दिखाई दिए।
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता ।
देखि सती अति भईं सभीता।।
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं ।
नयन मूदि बैठीं मग माहीं।।
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी।
कछु न दीख तहं दच्छकुमारी।।
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।
चलीं तहां जहं रहे गिरीसा ।।
अर्थ – सभी जगहों पर वही रघुनाथजी ,वही लक्ष्मण और वही सीता जी देखकर सती बहुत ही डर गईं। उनका हृदय कांपने लगा और देह की सारी सुध – बुध जाती रही। वे आंख मूंदकर मार्ग में ही बैठ गईं। फिर आंख खोल कर देखा तो वहां दक्षकुमारी (सती जी) को कुछ भी न दीख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचंद्र जी के चरणों में सिर नवाकर वहां चलीं , जहां श्री शिवजी थे।

सती का अंतिम प्रसंग अगले अंक में। आप सभी भक्तों को नमन एवं वंदन।

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