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सनातन’ का अर्थ है-जिसका न आदि है न अन्त : शंकराचार्य  नरेन्द्रानन्द

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सनातन’ का अर्थ है-जिसका न आदि है न अन्त : शंकराचार्य  नरेन्द्रानन्द

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस धर्म की उत्पत्ति मावन के पूर्व में हुई

धर्मान्तरण के उपरान्त भी बहुसंख्यक जनसंख्या की इसी धर्म में आस्था

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो और सदा के लिए सत्य ही हो

फतह सिह उजाला
गुरूग्राम। 
सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ’सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरान्त भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस धर्म की उत्पत्ति मावन की उत्पत्ति के पूर्व हुई थी । इस धर्म की स्थापना किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं की है।  जिन्होंने ऋग्वेद की रचना की उन ऋषियों और उनकी परम्परा के ऋषियों ने इस धर्म की स्थापना की है। जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अग्नि, आदित्य, वायु और अंगिरा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इनके साथ ही प्रारंभिक सप्तऋषियों का नाम लिया जाता है। ब्रह्म (ईश्वर) से सुनकर हजारों वर्ष पहले जिन्होंने वेद सुनाए, वही संस्थापक माने जाते हैं। यह ज्ञानवर्धक प्रवचन-संदेश काशी सुमेरु पीठाधीश्वर अनन्त श्री विभूषित पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने त्रिवेणी मार्ग स्थित शिविर के मंच से पण्डाल में उपस्थित सनातन धर्मावलम्बी श्रद्धालुओं को सनातन धर्म की महत्ता समझाते हुए कही। यह जानकारी शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द के निजि सचिव स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती ने मीडिया के साथ सांझा की।

जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द ने कहा कि सनातन धर्म का विकास वेद की वाचिक परम्परा का परिणाम है। ब्रह्मा और उनके पुत्रों, सप्तऋषियों, ऋषि बृहस्पति, ऋषि पाराशर, वेदव्यास से लेकर आदि शंकराचार्य तक इस धर्म का निरन्तर परिवर्तन और विकास होता रहा है । सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो । जिन बातों का शाश्वत महत्व हो, वही सनातन कही गई है । जैसे सत्य सनातन है । ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म-सनातन धर्म भी सत्य है । वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा, वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अन्त है । उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है। वैदिक धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है, जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है । मोक्ष का परिकल्पना इसी धर्म की देन है । एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण मोक्ष का मार्ग है, अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का

यज्ञ विशिष्ट वैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया
उन्होंने कहा कि यज्ञ एक विशिष्ट वैज्ञानिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकता है । यज्ञ के माध्यम से आध्यात्मिक सम्पदा की भी प्राप्ति होती है । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ करने वालों को परमगति की प्राप्ति की बात की है।  यज्ञ एक अत्यन्त ही प्राचीन पद्धति है, जिसे देश के सिद्ध-साधक संतों और ऋषि-मुनियों ने समय-समय पर लोक कल्याण के लिए करवाया । यज्ञ में मुख्यतः अग्निदेव की पूजा की जाती है । भगवान अग्नि प्रमुख देव हैं, हमारे द्वारा दी जाने वाली आहुति को अग्निदेव अन्य देवताओं के पास ले जाते हैं, फिर वे ही देव प्रसन्न होकर उन हव्यों के बदले कई गुना सुख, समृद्धि और अन्न-धन देते हैं, इसीलिए यज्ञ कलियुग का साक्षात् कल्पवृक्ष है। यज्ञ मानव जीवन को सफल बनाने के लिए एक आधारशिला है।  इसके कुछ भाग विशुद्धरूप से आध्यात्मिक हैं । अग्नि पवित्र है और जहां यज्ञ होता है, वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण, पवित्र और देवमय बन जाता है । यज्ञवेदी में ’स्वाहा’ कहकर देवताओं को भोजन परोसने से मनुष्य को दुख-दारिद्रय और कष्टों से छुटकारा मिलता है । वेदों में अग्नि परमेश्वर के रूप में वंदनीय है । अग्निदेव से प्रार्थना की गई है कि हे अग्निदेव! तुम हमें अच्छे मार्ग पर ले चलो, हमेशा हमारी रक्षा करो द्य यज्ञ को शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा गया है । इसकी सुगंध समाज को सुसंगठित कर एक सुव्यवस्था देती है । ऐसा इसलिए, क्योंकि यज्ञ करने वाले अपने आप में दिव्यात्मा होते हैं ।

यज्ञ भगवान विष्णु का ही अपना स्वरूप
शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द ने कहा यज्ञों के माध्यम से अनेक ऋद्धियाँ-सिद्धियांँ प्राप्त की जा सकती हैं । यज्ञ मनोकामनाओं को सिद्ध करने वाला होता है । विशेष आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, विशेष संकट निवारण के लिए और विशेष शक्तियाँ अर्जित करने के लिए विशिष्ट विधि-विधान भी भिन्न-भिन्न हैं । यज्ञ भगवान विष्णु का ही अपना स्वरूप है । इसे भुवन का नाभिकेन्द्र कहा गया है। याज्ञिकों के लिए आहार-विहार और गुणकर्म को ढालने के लिए विशेष प्रावधान है । यज्ञ से हर असम्भव को सम्भव किया जा सकता है । यज्ञ से ब्रह्म की भी प्राप्ति होती है । यह इंसान की पाप से रक्षा करता है, प्रभु के सामीप्य की अनुभूति कराता है। मनुष्य में दूसरे की पीड़ा को समझने की समझ आ जाए, अच्छे-बुरे के अन्तर की अनुभूति होने लगे, तो समझें यज्ञ सफल है । यज्ञ करने वाले आपसी प्रेम और भाईचारे की सुवास हर दिशा में फैलाते हैं, अर्थात् यज्ञ मनुष्य में मनुष्यत्व का निर्माण करता है।

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