धर्म का असली मर्म
धर्म का असली मर्म
👉धर्म और अधर्म की व्याख्या करते हुए पंचाध्यायी में बहुत महत्वपूर्ण श्लोक कहा गया है– शक्ति: पुण्यं पुण्य फलं संपच्च संपद: सुखम्।
अताहि चयनं शक्तेर्यतो धर्म: सुखावह: ॥
शक्ति पुण्य है,पुण्य का फल वैभव है और वैभव से सुख प्राप्त होता है। इसलिए निश्चय ही शक्ति का संचय सुख कारक धर्म माना गया है ।
👉 उपरोक्त श्लोक में सच्चे धर्म का असली मर्म खोल कर रख दिया गया है। जिससे अपनी, अपने समाज की शक्ति बढ़ती है,वह धर्म है। विद्या,स्वास्थ्य,धन,प्रतिष्ठा, पवित्रता,संगठन,सच्चरित्रता उपरोक्त सात महाबल माने गए हैं। जिन कार्यों से इन सात मार्गो में अपनी या अपने समाज की उन्नति होती हो धर्म साधना के निमित्त उन्हीं कार्यों को करना तथा अपनाना चाहिए। स्वयं इन सातों बलों को अपने पास एकत्रित करना धर्म कर्तव्य समझकर सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए और महा संपत्तियाँ दूसरों को भी प्राप्त हों इसके लिए परोपकार की भावना के साथ उद्योग करना चाहिए। ऐसी सभा-संस्थाओं का स्थापन संचालन और सहयोग करना चाहिए जो स्वास्थ्य की उन्नति करती हो,जिनके द्वारा ज्ञान की वृद्धि होती हो,आर्थिक दशा सुधरती हो,गंदगी,मलिनता,कुरुचि हटती हो,मेल,एक्य-भ्रातृभाव बढ़ता हो,सद्गुणों,सदाचार तथा न्याय में उन्नति होती हो । बलों की वृद्धि करना ही धर्म साधना का प्रधान कार्य है । रक्षा करने का एकमात्र हथियार घात है । धर्म का गुण रक्षा करना माना गया है। इसलिए वे ही कार्य धर्म ठहराए जा सकते हैं जिनके द्वारा हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक बल बढ़ता हो,उन्नति होती हो,सुख बढ़ता हो और आत्मरक्षा की क्षमता प्राप्त होती हो। जो व्यक्ति उपरोक्त प्रकार के कामों में जितने परिश्रम और लगन के साथ जुटे हुए हो उन्हें उतना ही बड़ा धर्मात्मा मानना चाहिए ।
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