राजनीति सत्ता पाने का अवसर नहीं, सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम है- उषा प्रियदर्शी
राजनीति सत्ता पाने का अवसर नहीं, सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम है- उषा प्रियदर्शी
उषा प्रियदर्शी -प्रदेश उपाध्यक्ष ओबीसी मोर्चा बीजेपी हरियाणा का कहना है की सरदार पटेल से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक अनेक विद्वानों ने उच्चशिक्षा हासिल करने के बाद भी राजनीति को कर्मक्षेत्र बनाया. डॉ. अम्बेडकर जैसे उच्चकोटि के विद्वानों एवं नीति-निर्माताओं ने जिन संकल्पों के साथ हमें संविधान दिया, उसमें समस्त राजनीति ने एक संरक्षक की भांति अपनी भूमिका निभाई.
धरातल पर बदलाव लाने के लिए राजनीति सबसे सशक्त माध्यम है. राजनीति के द्वारा हम समाज के दबे-कुचले लोगों और उपेक्षित समुदायों को ऊपर उठाते हुए सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करने का भरसक प्रयास कर सकते है. एक व्यापक बदलाव लाने का जो कार्य, बड़े से बड़े वेतन वाली प्रतिष्ठित नौकरी करके भी नहीं किया जा सकता है, उसे राजनीति के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है. राजनीति हमें सामाजिक न्याय के ऐसे बदलाव का सजग प्रहरी बना सकती है जो समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए अत्यन्त आवश्यक है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि राजनीति के क्षेत्र में किया जाने वाला संघर्ष बिल्कुल वैसा ही है, जैसा हीरा चमकाने के लिए एक जौहरी को करना पड़ता है. इस संघर्ष के साथ ही यह आवश्यक होता है कि मन में समर्पण एवं विशुद्ध सेवा की भावना रखते हुए ही, समता के मौलिक अधिकार को जन-जन तक पहुंचाने के लिए राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा जाए. जब भी राजनीति में एक व्यक्ति की कीमत, मात्र एक वोट के आधार पर तय होने लगती है तो राजनीति पथभ्रष्ट एवं दिग्भ्रमित हो जाती है. सामाजिक सरोकार के अपने मूल उद्देश्य से हटते ही राजनीति, मात्र वोट बटोरने का एक साधन बनकर रह जाती है और विभाजन एवं विद्वेष करने लगती है. ऐसे में ये सेवा करने का माध्यम न रहकर, सत्ता पाने का अवसर मात्र रह जाती है. सत्ता पाने का अवसर बनते ही राजनीति, समान रूप में सभी नागरिकों को लाभ नहीं दे पाती है और इसके दुष्प्रभाव, समाज और राष्ट्र के हितों पर पड़ने लगते हैं.
यह सच है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति, राजनीति के प्रभाव से वंचित नहीं रह सकता है. एक स्वस्थ लोकतंत्र की जीवंतता इस बात से तय होती है कि शासन-प्रशासन द्वारा सामाजिक-आर्थिक न्याय को अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक कितनी आसानी से पहुंचाया जा सकता है और यहीं पर राजनीति की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. आज भी देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है और अभी भी इन गांवों में विकास का स्तर शहरों की अपेक्षा निम्न है. गांवों की अधिकांश जनसंख्या या तो निरक्षर या मात्र साक्षर होती है. सरकार के अनेक प्रयासों के बावजूद अभी भी गांवों में पूर्ण रूप से शिक्षित जनसंख्या कम है. ऐसी स्थिति में ही यदि राजनीति कुछ ऐसे गलत हाथों में चली जाती है जो अशिक्षित और कम जानकारी वाले लोगों का फायदा उठाते हैं तो समाज के साथ अनेक प्रकार का अन्याय होने लगता है और पूरी तरह से न्याय नहीं किया जा सकता है. क्योंकि शासन प्रणाली से सम्बन्धित जिन नीतियों को जन-उपयोगी बनाकर लागू किया जाता है वे भ्रष्टाचार के चलते अपने वांछित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाती हैं.
यदि हम अपने राजनैतिक इतिहास के गर्भ में जाकर देखें तो पता चलता है कि अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने देश एवं समाज के कल्याण के लिए, अपना सम्पूर्ण जीवन, राजनीति को समर्पित कर दिया. सरदार वल्लभभाई पटेल से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद भी राजनीति को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाया. एक युगद्रष्टा एवं क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जैसे उच्चकोटि के विद्वानों, महापुरुषों एवं नीति-निर्माताओं ने जिन संकल्पों के साथ हमें हमारा संविधान दिया, उसमें समस्त राजनीति ने एक संरक्षक की भांति अपनी भूमिका निभाई. लेकिन कालांतर में राजनीति पर गलत दृष्टि डालने वालों ने जनप्रतिनिधि का मुखौटा लगाकर राजनीति का नायकत्व, मतदाता से राजनेता की ओर स्थानान्तरित कर दिया और इसी कारण राजनीति में अनेक प्रकार की विसंगतिया पैदा होने लगीं.
राजनीति का चरित्र-चित्रण, उसके नेतृत्व में प्रतिबिम्बित होता है. सही राजनीतिक नेतृत्व किसी भी संस्था या अभियान को जन-जन के बीच पहुंचा सकता है और उसे जनभागीदारी का प्रतीक बना सकता है. कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान भारत सरकार ने जिस प्रकार से गरीबों एवं असहायों की सहायता के लिए राजनीतिक दूरदृष्टि के साथ शासन एवं प्रशासन का कार्य किया है, वह संस्थाओं के नेतृत्व का श्रेष्ठ उदाहरण है. विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले भारत जैसे देश में कोरोना के संकट से निपटते हुए गरीबों, मजदूरों, किसानों, शोषितों एवं वंचितों के हितों की रक्षा करने से लेकर देश की आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने तक का कार्य, किसी चुनौती से कम नहीं है. लेकिन संकट के ऐसे समय में प्रधानमंत्री ने देश के सभी राजनीतिक दलों को एक साथ जोड़ने का समेकित प्रयास करते हुए देश को आत्मनिर्भर बनाने और जन-कल्याण करने के लिए सरकार की भावी प्राथमिकताओं और योजनाओं को धरातल पर उतारा है.
सकारात्मक राजनीति ही भारत की समेकित संस्कृति और सह-अस्तित्व की भावना को अक्षुण्ण रख सकती है. राजनीति का मूल उद्देश्य जनता के सामाजिक-आर्थिक कल्याण को अधिकतम करना है. यदि राजनीति पूरी तरह से सही और सकारात्मक दिशा में प्रयोग की जाए तो विकास के नए शिखर छुए जा सकते हैं, मानवता की सेवा की जा सकती है और देश को निरंतर आगे बढ़ाया जा सकता है. राजनीति समाज को जागरूक और संवेदनशील बनाकर उसे अपने अधिकारों के प्रति अवगत कराकर सशक्त बनाने की दिशा में प्रेरित कर सकती है. ये राजनीति की जिम्मेदारी होती है कि वह उपेक्षितों और शोषितों की पक्षधर हो.
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को राजनीति और कूटनीति के माध्यम से राज्य, धर्म एवं समाज की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया है. धर्म के विपरीत आचरण करने वालों और सत्ता, सुख-संपदा, धन-वैभव एवं ऐश्वर्य के लिए जीने वालों को उन्होंने समस्त संसार के लिए विनाशकारी बताया है. इसलिए हमारी राजनीति के विमर्श में लोकमंगल की भावना होना बहुत आवश्यक है. राजनीति को सत्ता पाने का अवसर मानने वाली अनैतिकता ही अस्वस्थ राजनीतिक परंपरा को पोषित करती रहती है. यदि राजनीति की ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाया जाए और नैतिकता, मूल्यों एवं आदर्श का समावेश करते हुए सेवाभाव से कार्य किया जाए तो एक स्वस्थ, सक्षम एवं सजग समाज और सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है.
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