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भगवान ऋषभदेव जयन्ती

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भगवान ऋषभदेव जयन्ती

भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। उनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि उनके पहले इस देश में लोगों को कृषि कला का ज्ञान बहुत कम था।

कल्पवृक्षों की समाप्ति से जनता के सामने उदरपूर्ति की समस्या पैदा हो गई। उस समय ऋषभदेव ने राजा के रूप में जनता को शस्त्र विद्या, लेखन कला, कृषि, ज्योतिष, व्यापार कला एवं शिल्प (कारीगरी) का ज्ञान दिया।

व्यवस्थित कृषि के कारण वे सुखी एवं समृद्ध हुए। इस कारण ऋषभदेव अपने युग के प्रजापालक और लोकप्रिय शासक हुए। इसे एक सुयोग ही कहेंगे कि उस काल से आज तक कृषि का मूलाधार रहा वृषभ (बैल) ही भगवान ऋषभदेव का प्रतीक बना। ऋषभदेव का एक नाम वृषभदेव भी पड़ गया। पुरातत्वज्ञ वृषभ लांछन से ऋषभदेव की मूर्तियों की पहचान करते हैं।

आचार्य जिनसेन ने आपको पुरुदेव संज्ञा प्रदान की है। अत्यधिक गुणों से युक्त होने के कारण उन्हें पुरु कहा जाता था। प्रजा के रक्षक होने के कारण वे प्रजापति कहलाए।
भगवान ऋषभदेव की दो रानियां थीं यशस्वती एवं सुनंदा।

पहली रानी से उन्हें भरत सहित 100 पुत्र एवं पुत्री ब्राह्मी तथा दूसरी रानी से पुत्र बाहुबली एवं पुत्री सुंदरी हुए। इस प्रकार आपके 101 पुत्र एवं 2 पुत्रियां थीं। वे राजसत्ता, वैभव एवं परिवार का त्याग कर आत्मा साधना के लिए जंगल की ओर प्रयाण कर गए थे। वन की ओर प्रस्थान करने से पहले अपना राज्य भरत एवं बाहुबली संसार को सौंप दिया था।

भरत छह खंड पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती बने एवं बाहुबली संसार की असारता का चिंतन करते हुए अपने हिस्से का भाग भी भाई को सौंपकर कठोर तपश्चरण कर मोक्षगामी बन बने। उनकी प्रतिमा श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में स्थापित है।

भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों को ब्राह्मी लिपि की शिक्षा दी। यह ब्राह्मी लिपि विश्व की प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। सुंदरी को दी गई अंक विद्या समस्त गणितीय विकास का मूलाधार है। संपूर्ण परिवार का त्याग कर भरत भी ऋषभदेव के चरणों में जाकर मुनि बन गए थे।

कालांतर में वैराग्य के बाद आपने मुनि दीक्षा ली तथा अनवरत 6 माह तक तपश्चरण करते हुए आत्मस्वरूप के चिंतन में लीन रहे। इसके बाद जब आहार के लिए निकले तो किसी को आहार की विधि ज्ञात नहीं थी।

हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को अचानक इस विधि का ज्ञान हुआ और वैशाख शुक्ल तृतीया को हस्तिनापुर (वर्तमान में उप्र के मेरठ जनपद जिले में है) में आपका प्रथम आहार हुआ।

इस क्षेत्र में प्रचुरता से होने वाले गन्ने (इक्षुदंड) की खेती में से शुद्ध इक्षु रस तैयार कर उसका आहार दिया गया था। इसी कारण राजा श्रेयांस, हस्तिनापुर नगरी तथा यह पावन तिथि अमर हो गई।

आज भी जैन परंपरा में यह दान पर्व के रूप में मनाया जाता है। जैन धर्म की श्वेतांबर परंपरा में वर्षीतप प्रचलित है। एक उपवास एवं एक आहार की वर्ष पर्यंत साधना से आज ही के दिन पारण होता है। लोग इस दिन जरूरतमंदों, साधर्मी बंधुओं को दान देते हैं।

लोक परंपरा में महिलाएं आज के दिन पनेड़ी पर नया घड़ा रखती हैं। उसका मुहूर्त करती हैं। जल भरकर उसे कपड़े से ढंक देती हैं। कपड़े पर मिष्ठान आदि रखती हैं तथा पास की दीवार पर ऋषभदेव की स्मृति स्वरूप पुरुष की आकृति बनाती हैं। जैन परंपरा के अतिरिक्त वैदिक परंपरा में भी यह पर्व श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।

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