महाराज दशरथ की अंतर्व्यथा
महाराज दशरथ की अंतर्व्यथा
महारानी कैकेयी द्वारा दो वर – १. अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक एवं २. श्रीराम को १४ वर्षों के लिए वनवास – मांगने के पश्चात् महाराज दशरथ की शोकाकुल मन:स्थिति का बहुत ही अच्छा वर्णन रामायण में मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि ने अयोध्या कांड के द्वादश सर्ग में किया है। वे लिखते हैं –
तत: श्रुत्वा महाराज: कैकेय्या दारुणं वच:।
चिन्मतामभिसमापेदे मुहूर्तं प्रतताप च ।।
कैकेयी का यह कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथ को बड़ी चिंता हुई। वे एक मुहूर्त तक अत्यंत संताप करते रहे।
व्यथितो विक्लवश्चैव व्याघ्रीं दृष्ट्वा यथा मृग:। असंवृतायामासीनो जगत्यां दीर्घमुच्छवसन्।।
मंडले पन्नगो रुद्धो मन्त्रैरिव महाविष:।
जैसे किसी बाघिन को देखकर मृग व्यथित हो जाता है , उसी प्रकार वे नरेश कैकयी को देखकर पीड़ित एवं व्याकुल हो उठे। बिस्तररहित खाली भूमि पर बैठे हुए राजा लंबी सांस खींचने लगे , मानो कोई महा विषैला सर्प किसी मण्डल में मन्त्रों द्वारा अवरुद्ध हो गया हो।
अहो धिगिति सामर्षो वाचमुक्त्वा नराधिप:।।
मोहमापेदिवान् भूत: शोकोपहतचेतन: ।
राजा दशरथ रोष में भरकर ” अहो ! धिक्कार है। ” यह कहकर पुन: मूर्च्छित हो गए। शोक के कारण उनकी चेतना लुप्त – सी हो गई।
अब इसी प्रसंग पर तुलसीदास जी नए उपमाओं के साथ अपनी कलम चलाते हैं –
सुनि मृदु बचन भूप हियं सोकू ।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू ।।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा।
जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
बिबरन भयउ निपट नरपालू ।
दामिनि हनेउ मनहुं तरु तालू ।।
कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ , जैसे चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है । राजा सहम गए , उनसे कुछ कहते न बना , मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिल्कुल उड़ गया , मानो ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो। (जैसे ताड़ के पेड़ पर बिजली गिरने से वह झुलस कर बदरंग हो जाता है , वही हाल राजा का हुआ।)
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन।
तनु धरि सोच लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतरु फूला ।
फरत करीनि जिमि हतेउ समूला।।
अवध उजारि कीन्हि कैकेई।
दीन्हिसि अचल बिपति कै नेई।।
माथे पर हाथ रखकर , दोनों नेत्र बन्द करके राजा ऐसे सोच करने लगे , मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं – हाय !) मेरा मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था , परंतु फलते समय कैकयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उखाड़ कर नष्ट कर डाला। कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी।
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