विपत्तियों को कैसे जीता जाय ?
विपत्तियों को कैसे जीता जाय ?
समतापूर्ण दृष्टिकोण मनुष्य का सबसे बड़ा हित साधक है। इसकी उपलब्धि मनुष्य को तब ही होती है, जब वह संसार की प्रत्येक कार्यविधि को ईश्वर की इच्छा मानता है। अनुकूलताओं को गले लगाने और प्रतिकूलताओं से घृणा करने वाला मनुष्य जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकता। संसार में एकमात्र अनुकूलताओं की आशा लेकर चलने वाले मनुष्य को विफलताओं की मरुभूमि में भटकना ही पड़ेगा। अपने संपूर्ण मन-मस्तिष्क से जो अनुकूलताओं का ही उपासक बना रहता है और प्रतिकूलताओं के लिये जरा भी स्थान नहीं रखता, उसे यथा संभाव्य प्रतिकूलता के अवसर पर विचलित होकर अस्त-व्यस्त हो जाने के लिये सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में रोने वाले व्यक्ति झूले की तरह आगे-पीछे जाते हुए एक ही स्थान पर रहते हैं, न वे आगे बढ़ पाते हैं और न उन्नति कर पाते हैं।
संसार के प्रत्येक घटनाक्रम में ईश्वरीय आदेश का दृष्टिकोण रखकर ही अपना कर्त्तव्य करते रहना चाहिए। खिन्नताओं, व्यग्रताओं, भयों और विषादों से मुक्त रहकर जो प्रत्येक परिस्थिति में परिपूर्ण रहकर कार्य करता है, वह अवश्य उन्नति के शिखर पर पहुँचता है। यह अहेतुक प्रसन्नता का दृष्टिकोण, ईश्वर में अडिग विश्वास और संसार के प्रत्येक क्रिया-कलाप को उसकी ही इच्छा समझने से उपलब्ध हो सकता है।
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