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Rajni

हनुमान जी को 9 भाषाओं का विद्वान् कहा गया है

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हनुमान जी को 9 भाषाओं का विद्वान् कहा गया है। पता नहीं उस समय भारत में इतनी भाषा थी या कुल भाषा में केवल 9 जानते थे। #रावण भारत की स्थानीय भाषायें नहीं जानता था। अतः वह सीता जी से शुद्ध #संस्कृत में बात करता था। #सुन्दर_काण्ड में हनुमानजी चिन्ता करते हैं कि सीता जी से संस्कृत में बात करने पर उनको रावण का आदमी समझेंगी। अतः उन्होंने #अयोध्या #मिथिला के बीच की भाषा का प्रयोग किया (उस समय की मैथिली या भोजपुरी)।

बल क्या होता है ?
केवल शरीर के बल को बल , संस्कृत भाषा में नही कहा जाता है ।
आप लोग कमेंट में “ जय बजरंग बली “ लिखते है । हनुमान जी को बली कहने के पीछे का रहस्य समझिए ।

इंद्रियों को संस्कृत भाषा में “ अक्ष” भी कहते है । अर्थात् , हनुमान जी का समक्ष पहली शक्ति कौन सी आई ? अक्षकुमार के रूप में आई । हनुमान ने इंद्रियों की शक्ति वाले अक्ष का नाश कर दिया ।

मेघनाद में इन्द्रिय बल के साथ साथ “ काम का बल” भी था । अब आप लोग यह भली भाँति जानते हैं की काम का बल भी बहुत भयानक होता है । होता नकारात्मक है पर होता भयंकर है । आप लौकिक जीवन में भी देखेगे की कोई सींक जैसा दिखने वाले ने भी बलात्कार का प्रयास किया । और वह ऐसा “ काम के बल” के कारण कर पाता है ।

हनुमान अर्थात जिसने अपने मान का हनन कर दिया हो ।
हनुमान जी , जैसा की आपको पता ही है ब्रह्मचारी थे अत: उन पर काम के बल का कोई प्रभाव तो पड़ना नहीं था और वह रावण , “जो की इंद्रिय और काम के साथ साथ , अहंकार का रूप था “ के पास पहुँच कर उसका अहंकार डिगाना चाहते थे अत: मोहपाश में बधे ।

अत: वह जो काम को अपने वश में रख सके , इंद्रिय को अपने वश में रख सके और अपने मन बुद्धि चित्त अहंकार को प्रभू के चरणों में डाल दे , वास्तव में “ बली” वही बली है । हाँ , शरीर का बल भी आवश्यक है ।

आशा है , जो लोग नए जुड़े हुए हैं उन्हें “ बल” शब्द का सनातनी अर्थ समझ में आ गया होगा ।

समर्थगुरूरामदास ने हर गाँव में हनुमान जी को स्थापित किया था और लोगों से कसरत करने को कहा था ।

आत्मबल और शरीर बल दोनो की आवश्यकता आज और भी अधिक है ।

आज हमें समर्थ गुरू रामदास के आदेश को पुन: फैलाना है । सभी लोग अपने लोकल हनुमान मंदिर या और किसी मंदिर में न केवल संगठित हों बल्कि कसरत इत्यादि करके बलशाली बनें ।
सभी लोग जनजागरण में जुट जाएँ ।औरों को जगाएँ ।

आज हनुमत जन्मोत्सव है । एक छोटी सी कथा हनुमान जी की सुनिए । राम-रावण युद्ध हो चुका था और आततायी रावण का बध करके आपके राम, वापस अयोध्या आ चुके थे और राजतिलक हो चुका था और भगवान सबको उपहार दे रहे थे और आभार प्रकट कर रहे थे । पर जब हनुमान जी की बारी आई तब भगवान राम ने कहा हनुमान जी, आपको न मैं कुछ दूँगा और न ही भविष्य में आपकी कोई भी सहायता करूँगा ।

अब चूँकि आपलोग अब्राहमिक फेथ और अंग्रेज़ों के थैंक्यू में इतना रम गए हो कि सनातन धर्म का गूढ़ तत्व समझ में ही नही आता ।
इसका अभिप्राय यह था कि कि भगवान उसको कुछ देते जिसके पास कोई कमी हो या कुछ आवश्यकता हो । और भविष्य में सहायता न करने का अभिप्राय यह था कि हे हनुमान जी मेरे उपर संकंट आया तो आपने मेरी सहायता करी पर आपके उपर ऐसा संकट कभी आए ही नहीं जिसके कारण मुझे आपको सहायता देने की आवश्यकता पड़े ।

यह तो थी भगवत कृपा । अब भक्ति का रूप देखिए । जब हनुमान जी की राम से माँगने की बारी आई तो हनुमान जी ने केवल राम की भक्ति माँग ली । बोला कि हे राम, मैं सदैव आपके बारे में सोचता रहूँ ऐसा आशीर्वाद दे दीजिए ।अब आप ध्यान से पढ़िए । यदि आपकी राम भक्ति मे मन लगता है तो यह “फल” है , साधना नहीं ।
यदि राम से आप मुक्ति या कैवल्य माँग रहे हैं तो हनुमान जी को नहीं समझा आपने । केवल और केवल राम भक्ति में लीन हो जाईए
हनुमत भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप को बाकी और रामभक्तों तक पहुँचाया जाय ।
जय हनुमान जी ।


हनुमान की जन्म तिथि-
पंचांग में हनुमान जयन्ती की कई तिथियों दी गई हैं पर उनका स्रोत मैंने कहीं नहीं देखा है। पंचांग निर्माताओं के अपने अपने आधार होंगे। #पराशर_संहिता, पटल 6 में यह तिथि दी गई है-

तस्मिन् केसरिणो भार्या कपिसाध्वी वरांगना।
अंजना पुत्रमिच्छन्ति महाबलपराक्रमम्।।29।।
वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मन्द संयुता।
पूर्व प्रोष्ठपदा युक्ता कथा वैधृति संयुता।।36।।
तस्यां मध्याह्न वेलायां जनयामास वै सुतम्।
महाबलं महासत्त्वं विष्णुभक्ति परायणम्।।37।।
इसके अनुसार हनुमान जी का जन्म वैशाख मास कृष्ण दशमी तिथि शनिवार (मन्द = शनि) युक्त पूर्व प्रोष्ठपदा (पूर्व भाद्रपद) वैधृति योग में मध्याह्न काल में हुआ।
बाल समय रवि भक्षि लियो तब तीनहु लोक भयो अन्धियारो।

यदि इसका अर्थ है कि हनुमान जी के जन्म दिन सूर्य ग्रहण हुआ था तो उनका जन्म अमावस्या को ही हो सकता है। दिन के समय ही सूर्य ग्रहण उस स्थान पर दृश्य होगा।
युग सहस्त्र योजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
= सूर्य युग सहस्त्र या 2000 योजन पर नहीं है। तुलसीदास जी ने सूर्य सिद्धांत पढ़ा था जिसमें सूर्य का व्यास 6500 योजन (13,92,000 किमी) दिया है।
इन दोनों को मिला कर अर्थ-
सूर्य की दैनिक गति हमको पूर्व क्षितिज से पश्चिमी क्षितिज तक दीखती है। इसमें सूर्योदय को बाल्यकाल, मध्याह्न में युवा तथा सायंकाल को वृद्धावस्था कहते हैं। सूर्य के अंश रूप गायत्री की इसी प्रकार प्रार्थना होती है।
पूर्व तथा पश्चिमी क्षितिज पृथ्वी सतह पर दृश्य आकाश के दो हनु हैं। इन दो हनु के बीच सूर्य की दैनिक गति का पूरा जीवन समाहित है।
जब हमको सूर्य उदय होते दीखता है तब वह वास्तव में क्षितिज से नीचे होता है, पर वायुमंडल में किरण के आवर्तन से मुड़ने के कारण पहले ही दीखने लगता है। इसको सूर्य सिद्धांत में वलन कहा गया है। सूर्य का व्यास सूर्य सिद्धांत में 6500 योजन है जहाँ योजन का मान प्रायः 214 किमी है। जब व्यास का 2000 योजन क्षितिज के नीचे रहता है तभी पूरा सूर्य बिम्ब दीखने लगता है। यही युग (युग्म) सहस्त्र योजन पर भानु है जिसको क्षितिज रूपी हनु निगल जाता है।
हनुमान् के कई अर्थ हैं-(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे।
(२) आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
(३) ब्रह्म रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं-स्रष्टा रूप में यथापूर्वं अकल्पयत् = पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों (द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा करता है अतः कपि है। अतः मनुष्य का अनुकरण कार्ने वाले पशु को भी कपि कहते हैं। तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति मारुति = हनुमान् है। वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्णु है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजव हनुमान् है।
(४) हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
(५) २ प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है,उसकी महिमा साम है-ऋक्-सामे वै हरी (शतपथ ब्राह्मण ४/४/३/६)। पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें २ प्रकार के हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, ऋक् है। वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह साम हरि है। इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बता या है अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
(६) हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायुमण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग (प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है। इसी को कहा है-बाल समय रवि भक्षि लियो …)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३-अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्चन्दांस्येवैतत्संतर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति ऋक् १/६१/१६, अथर्व २०/३५/१६)
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१२)आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०)स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१२)

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