ऐसी व्याकुलता होते ही भगवान मिल जाते है…….
हनुमान जी महाराज भगवान के परम् भक्त हैं. उनमे तीन बात विशेष हैं-
1.- भगवान के चरणों में रहते हैं. भगवान को छोड़कर एक क्षण भी अलग नहीं होना चाहते हैं. जब भगवान की आज्ञा होती हे, तभी भगवान् की आज्ञा पालन के लिये चरणों से अलग होते हैं.
2.- जब भगवान की आज्ञा हो गयी तो साथ में रहने से भी आज्ञा पालन को विशेष महत्व देते हेँ.
3.- नाम में रूचि है.हृदय को चीरकर नाम का प्रताप रोम-रोम में दिखाया, भगवान की आज्ञा पालन में विघ्न पड़ने से मरने के लिये भी तैयार हो गये .
आज्ञा पालन की तत्त्परता देखकर वाल्मीकि रामायण में भगवान राम ने कहा – हे हनुमान ! मैं तुम्हारा ऋणी हूँ. तुमको दुःख होगा ही नहीं ताकि मैं दुःख दूर करके उऋण हो सकूँ.
हनुमानजी महान बलवान है, महान स्वामिभक्त हैं, भगवान को प्रेम से अपने अधीन कर लिया.
सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।अपने बस करि राखे रामू ।।
हनुमानजी ने भगवान के पवित्र नाम का जप करके राम को अपने वश में कर लिया, यह वशित्व सिध्दि है, जब भगवान वश में हो गये तो सब वश में हो जाते हैं.
भगवान भागवत में कहते हैं – दुर्वासा जी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ. मुझमे तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है, मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है. भक्तजन मुझ से प्रेम करते हैं और मैं उनसे प्रेम करता हूँ.
भगवान के जितने नाम हैं सब श्रेष्ठ हैं, परन्तु तुलसीदासजी के लिये रामनाम सबसे श्रेष्ठ है. वे पावन नाम रामनाम को मानते हैं इसलिये उन्होंने कहा पावन नामू , निरन्तर नाम जप के प्रताप से भगवान राम को अपने वश में कर लिया.
लोक में देखा जाता है कि जो स्वामी का आज्ञा पालन ठीक प्रकार से करता है, स्वामी उसी से अधिक प्रसन्न रहते हैं. जिसके प्रति भगवान की आज्ञा होती है, उसे कितना आनन्द होता है वही जानता है.
राम की आज्ञा का हनुमान कितनी प्रसन्नता से पालन करते हैं.भगवान राम ने हनुमानजी के द्वारा भरत जी के पास सन्देश भेजा.
हनुमानजी ने आकर कहा – तुम जिनका नाम ले रहे हो , जिनके विरह में तड़प रहे हो, वह राम आ रहे हैं. यह सुनकर भरत जी ऐसे प्रसन्न हुए, जैसे प्यासा आदमी अमृत पा गया हो,भरत जी कहते हैं
को तुम तात कहाँ ते आय ।
मोहि परम प्रिय बचन सुनाय ।।
हनुमान जी ने कहा – मैं भगवान का छोटा सा दास हूँ ,पवनपुत्र हनुमान मेरा नाम है,भरत जी यह सुनकर उन्हें हृदय से लगा लिया और मुग्ध हो गये, बोले –
एहि संदेस सरिस जग माहीं ।
करि विचार देखउँ कछु नाहीं ।।
भगवान के दर्शन से जो आनन्द होता, उससे भी ज्यादा भगवान के सन्देस से हुआ, यदि सूचना नहीं मिलती तो मैं मर जाता, तब दर्शन होकर क्या होता. संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसे देकर मैं उऋण हो सकूँ, इसलिये मैं ऋण चुकाने में असमर्थ हूँ अब प्रभु के चरित्र सुनाओ.हनुमान देखकर मुग्ध हो गए.
हर्ष में भरकर भगवान के पास आकर कहा जल्दी चलें ,भगवान अयोध्या आदि स्थानों को दिखाते हुए आ रहे थे, भगवान कहते हैं यहाँ के वासी मुझे वैकुण्ठ वासियों से भी अधिक प्रिय हैं, भगवान पहुंचकर भरत से मिलते हैं.
अमृत रूप प्रगटे तेहि काला ।
जथा जोग मिले सबहि कृपाला ।।
भगवान सबसे मिले, जिसका जैसा भाव प्रेम था, जैसे छोटे बड़े थे, सबसे यथायोग्य मिले, जिससे भगवान मिले, वह यही समझता है कि भगवान मेरे से ही मिल रहे हैं, क्षण में सबसे मिल लिये, भरत का कितना प्रेम था, कितनी व्याकुलता थी, एक मिनट का वियोग असह्य हो गया, वैसी व्याकुलता प्रेम हमारे में हो जाय तो हमे भी भगवान मिल सकते हैं.
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