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संबंधों को विश्वसनीयता देने का ग्रंथ है गीता: स्वामी ज्ञानानंद

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संबंधों को विश्वसनीयता देने का ग्रंथ है गीता: स्वामी ज्ञानानंद
-गीता के सातवें अध्याय के दूसरे श्लोक को मंत्र बनाएं
-गुरुग्राम में तीन दिवसीय दिव्य गीता सत्संग का दूसरा दिन

प्रधान संपादक योगेश

गुरुग्राम। श्रीमद् भगवत गीता पूर्ण परमात्मा है। यह सनातन सत्य है कि भगवत गीता के संदेश को 5158 साल हो जाएंगे, जब कुरुक्षेत्र में अर्जुन के माध्यम से श्रीकृण जी ने समूची मानवता के लिए उपदेश दिया। स्वयं गीता में महर्षि व्यास कहते हैं कि गीता कर्तव्य है। गीता को जीवन का गीत बना ले मानव। गीता को जीवन का सुख बना लें। इस छोटे से जीवन में विस्तार में कहां तक जाएगा। यह बात गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने यहां सेक्टर-4 स्थित वैश्य समाज धर्मशाला में दिव्य गीता सत्संग के दूसरे दिन कही।
इस अवसर पर जीओ गीता के युवा राष्ट्रीय सचिव नवीन गोयल, हरियाणा सीएसआर ट्रस्ट के उपाध्यक्ष बोधराज सीकरी, पूर्व मंत्री धर्मबीर गाबा, मेयर मधु आजाद, रेलवे सलाहकार बोर्ड के सदस्य डीपी गोयल, सुरेंद्र खुल्लर, श्रीकृष्ण कृपा सेवा समिति के प्रधान गोविंद लाल आहुजा, महासचिव सुभाष गाबा समेत अनेक धर्मप्रेमी उपस्थित रहे।  
स्वामी ज्ञानानंद ने आगे सुनाया कि आज हर क्षेत्र में संबंधों में कमजोरी आ गई है। शिक्षक-छात्र के बीच भी। बच्चों और माता-पिता के बीच भी। डाक्टर-मरीज के बीच कमजोर विश्वास है। व्यापारी-ग्राहक के बीच भी वह संबंध नहीं रहे। गीता संबंधों की विश्वसनीय को दृढ़ स्वरूप देने का ग्रंथ है। स्वयं भगवान नारायण के मुख कमल से निकली हुई श्रीवाणी गीता है। इसलिए गीता का वह उपदेश भी पूर्णता का उपदेश है। इस जीवन की पूर्णता गीता के उपदेश से है। भगवान गोविंद को अधूरापन स्वीकार नहीं। वह हर बार पूर्णता की बात करते हैं। वो समर्पण भी पूरा मांगते हैं। उन्होंने गुरू-शिष्य की परम्परा पर बताया कि गुरू के समक्ष जाकर शिष्य की क्या भावाना होनी चाहिए। गीता एक ऐसा पावन, प्रेरक शास्त्र है, जहां भगवान कृष्ण स्वयं को कुशल आचार्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक बड़ी दिव्य भूिमका में श्रीकृष्ण का स्वभाव गीता में नजर आता है। वहीं अुर्जन एक समर्पित शिष्य की भूमिका में हैं। स्वामी जी ने कहा कि जीवन में कभी लग रहा हो कि कोई दुविधा सुलझ नहीं पा रही। मन किसी बात से भ्रमित सा है। कुछ कर्तव्य विमूढ़ सा हो। कोई निर्णय नहीं कर पा रहे हों। यह स्थिति सबके जीवन में कहीं ना कहीं हो जाती है। जब ऐसा लगे कि जीवन दुविधा के दोराहे पर खड़ा हो, कुछ समझ नहीं आ रहा हो। ऐसे समय में श्रीमद भागवत के दूसरे अध्याय के सातवें श£ोक को मंत्र बनाएं। यह अचूक मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगा। इस श£ोक का श्रद्धापूर्ण अनुष्ठान करें। मन ही मन जाप करें। पूरे मन के साथ करें। उन्होंने कहा कि मंत्र केवल रखने के लिए नहीं मिलता। मंत्र जीवन की ऊर्जा होता है। बल होता है। संबल होता है। साथी होता है। सहारा होता है। शक्ति होता है। आनंद होता है। मंत्र लोक-परलोक हर परिस्थिति का सच्चा, सबसे अच्छा, सबसे पक्का सहारा होता है।
स्वामी ज्ञानानंद महाराज ने सुनाया कि इसलिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए। गीता में कृष्ण मंत्र जाप को यज्ञ की संज्ञा देते हैं। कहते हैं कि अर्जुन जितने भी यज्ञ हैं, उन सब यज्ञों में जप यज्ञ मेरा ही स्वरूप है। मंत्र को यह मानकर ही करना चाहिए कि मंत्र और जिनके नाम का मंत्र है वह दोनों एक ही हैं। मंत्र जीवन की ऊर्जा बनता है। उसका जाप बहुत अच्छा होता है। श£ोक को मंत्र के रूप में जपेंगे तो लगेगा कि गीता के मंत्रों में श£ोक में इतनी क्षमताएं भरी हुई हैं। गीता धर्म को कर्तव्य से जोड़कर उदार बनाती है।
गीता मनीषी ने कहा कि अपनी कमी को सदा स्वीकारें। जब तक अपनी कमी को हम स्वीकारेंगें नहीं, उसे दूर नहीं कर पाएंगे। जब भगवान के समक्ष जाते हैं तो हमें अपनी कमियों को स्वीकारना भी चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो फिर भगवान का आशीर्वाद कहां से पाएंगे। जब भगवान के पास जाकर भी हम अपनी कमियों पर पर्दा डालने का प्रयास करेंगे तो ठीक नहीं। अगर हमारे भीतर कोई छल कपट है तो वह कभी ना कभी बाहर जरूर आएगा। चाहे वह शब्दों में आए या क्रियाओं में। संसार में कपट सदा नहीं चलता। भगवान के समक्ष तो चल ही नहीं सकता। जीवन में लोग दूसरों की कमियों को जीवन भर देखते रहते हैं, लेकिन अपनी कमियों में झांकते ही नहीं। हमारा जीवन ढलता जाता है और हमारी यह आदतें पकती जाती हैं। यह आदतें पकती-पकती जीवन ढलान पर आ गया और वह कमियां सांसों के साथ चली गई। ऐसा नहीं होना चाहिए। अर्जुन की तरह खुद को भगवान के समक्ष उडेल दें। कोई कमी नहीं रहेगी।

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