देवता बनिए,मिल-बाँटकर खाइये
देवता बनिए,मिल-बाँटकर खाइये
मित्रो !! उस आदमी का नाम देवता है,जो अपनी सुविधाओं और संपदाओं को मिल-बाँटकर खाता है। मिल-बाँटकर खाने का मजा देखा है आपने ? इक्कड़,जो अकेला ही खाता रहता है,पाप खाता रहता है। अकेला ही संचय करता रहता है,वह आदमी पाप संचय करता रहता है। जो अकेले की खुशी चाहता है,वह आदमी पाप संचय करता है। इसलिए हमारे ‘यहाँ ‘परिवार’ की,‘लार्जर फैमिली’ की प्रणाली है,जिसमें सब मिल-बाँटकर खाएँगे। मिल- जुलकर रहेंगे,हिल-मिलकर खाएँगे। कमाने वाला स्वयं थोड़े ही खाता है। सब मिल-बाँटकर खाते हैं। कोई बच्चा है,कोई बीमार है,कोई बुड्ढा है,किंतु सब हिल-मिलकर रहते और मिल- बाँटकर खाते हैं। यह पारिवारिक वृत्ति है,जिसमें वसुधैव कुटुंबकम् की मान्यता जुड़ी हुई है।वसुधैव कुटुंबकम्’ की मान्यता क्या है? आत्मवत् सर्वभूतेषु की है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ क्या है? एक ही है कि आप दूसरों की मुसीबतों में हिस्सेदार हो जाइए और अपनी सुविधाओं को बाँट दीजिए। हो गया ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और हो गया वसुधैव कुटुंबकम्। सारे सिद्धांतों का निर्वाह इसी तरीके से होता है। इसलिए आपकी कार्यपद्धति और आपके चिंतन में ये बातें जुड़ी रहनी चाहिए कि हम किस तरीके से मिल-बाँटकर खाएँगे और दूसरों की मुसीबतों में किस तरीके से हाथ बँटाएँगें। इसीलिए आपको अपना संकीर्ण ‘स्व’ जो अभी आपने कूपमंडूक के तरीके से सीमित कर रखा है, फिर आप उसको विशाल बना देंगे। आप सबके हो जाएँगे और सब आपके हो जाएँगे। तब आप देवता हो जाएँगे और आपको स्वर्ग में रहना आ जाएगा। मित्रो !! अगर आप यह स्वर्ग नहीं खरीद सकते और आपने सीमा-बंधन बना रखा है। आप अपना ही खाना,अपना ही पहनना, अपना ही पैसा,अपना ही बेटा,अपना ही यश,अपना ही नाम चाहते रहेंगे तो आप बहुत छोटे आदमी,जलील आदमी रहेंगे और आपको,नरक में रहने वाले को जो यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं,मानसिक दृष्टि से वे सारी यातनाएँ भुगतनी पड़ेंगी। ठीक है कि शारीरिक दृष्टि से यह भी हो सकता है कि आप कुछ खाने- पीने का सामान इकट्ठा कर लें, कुछ पैसा इकट्ठा कर लें, लेकिन आप दुखी ही रहेंगे !!
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