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दुर्गा अष्टमी, रोहिणी व्रत, होलाष्टक प्रारंभ, श्रीजी मन्दिर में लड्डूओं की होली बरसाना एवं दादू दयाल जयन्ती होलाष्टक फाल्गुन शुक्ल अष्टमी होलाष्टक

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          सादर् सुप्रभातम्

सृष्टि संवत् 1,96,08,53,123 युगाब्द् संवत् 5,123 विक्रमी संवत् 2,078 दिन – गुरुवार तिथि – अष्टमी माह – फाल्गुन
नक्षत्र – रोहिणी पक्ष – शुक्ल ऋतु – वसंत सूर्य – उत्तरायण


सम्पूर्ण विश्व के लिए मंगलमय हो.
दुर्गा अष्टमी, रोहिणी व्रत, होलाष्टक प्रारंभ, श्रीजी मन्दिर में लड्डूओं की होली बरसाना एवं दादू दयाल जयन्ती होलाष्टक फाल्गुन शुक्ल अष्टमी होलाष्टक

होलाष्टक का पर्व पंजाब एवं उत्तर भारत में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है. होलाष्टक फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से प्रारंभ होकर होलिका दहन के दिन समाप्त होता है. होलिका द​हन फाल्गुन पूर्णिमा को होती है. इस वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा तिथि 17 मार्च दिन गुरुवार को दोपहर 01:29 बजे से प्रारंभ हो रही है, जो 18 मार्च दिन शुक्रवार को दोपहर 12:47 बजे तक मान्य है. ऐसे में फाल्गुन पूर्णिमा 17 मार्च को है. 17 मार्च को होलिका दहन के साथ होलाष्टक का समापन हो जाएगा.

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पुर्णिमा तक कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है. इसे अपशगुन माना जाता है. इसका कारण भक्त प्रह्लाद और कामदेव से जुड़ा है.

राजा हिरण्यकश्यप ने बेटे प्रह्लाद को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि से होलिका दहन तक कई प्रकार की यातनाएं दी थीं, अंत में बहन होलिका के साथ मिलकर फाल्गुन पूर्णिमा को भक्त प्रह्लाद की हत्या करने का प्रयास किया. लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से भक्त प्रह्लाद बच गए और होलिका आग में जलकर मर गई.
वहीं, भगवान शिव ने कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को अपने क्रोध की अग्नि से भस्म कर दिया था. इन दो कारणों से ही होलाष्टक को अपशगुन माना जाता है.
दादू दयाल जी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी जयन्ती
दादूदयाल मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे. इनका जन्म विक्रमी संवत् 1601 में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को अहमदाबाद में हुआ था. पूर्व में दादूदयाल का नाम महाबलि था. पत्नी की मृत्यु के बाद ये सन्यासी बन गये. अधिकाशतया ये सांभर व आमेर में रहने लगे.

1603 में ये राजस्थान में नारायणा में रहने लगे और वही पर इन्होने अपनी देह का त्याग किया. दादूदयाल के 52 शिष्य थे इनमे से रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल प्रमुख थे. जिन्होंने अपने गुरु की शिक्षाएँ जन जन तक फैलाई. इनकी शिक्षाएँ दादुवाणी में संग्रहित है.

दादूदयाल ने बहुत ही सरल भाषा में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है. इनके अनुसार ब्रह्मा से ओंकार की उत्पति और ओंकार से पांच तत्वों की उत्पति हुई. दादूदयाल ने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को अत्यन्त आवश्यक बताया.

अच्छी संगति, ईश्वर का स्मरण, अहंकार का त्याग, संयम एवं निर्भीक उपासना ही सच्चे साधन है. दादूदयाल ने विभिन्न प्रकार के सामाजिक आडम्बर, पाखंड एवं सामाजिक भेदभाव का खंडन किया. जीवन में सादगी, सफलता और निश्छलता पर विशेष बल दिया. सरल भाषा एवं विचारों के आधार पर दादू को राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है.

संत दादू जी विक्रमी सं. 1625 में सांभर पधारे यहाँ उन्होंने मानव-मानव के भेद को दूर करने वाले, सच्चे मार्ग का उपदेश दिया। तत्पश्चात दादू जी महाराज आमेर पधारे तो वहां की सारी प्रजा और राजा उनके भक्त हो गए।

उसके बाद वे फतेहपुर सीकरी भी गए जहाँ पर बादशाह अकबर ने पूर्ण भक्ति व भावना से दादू जी के दर्शन कर उनके सत्संग व उपदेश ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की तथा लगातार 40 दिनों तक दादूजी से सत्संग करते हुए उपदेश ग्रहण किया। दादूजी के सत्संग से प्रभावित होकर अकबर ने अपने समस्त साम्राज्य में गौ हत्या बंदी का फरमान लागू कर दिया।

उसके बाद दादूजी महाराज नरेना (जिला जयपुर) पधारे और उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना और यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान होकर लम्बे समय तक तपस्या की और यहीं पर उन्होंने ब्रह्मधाम दादू द्वारा की स्थापना की जिसके दर्शन मात्र से आज भी सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है। तत्पश्चात श्री दादूजी ने सभी संत शिष्यों को अपने ब्रह्मलीन होने का समय बताया।

ब्रह्मलीन होने के लिए निर्धारित दिन (जयेष्ट कृष्ण अष्टमी सम्वत 1660 ) के शुभ समय में श्री दादूजी ने एकांत में ध्यानमग्न होते हुए सत्यराम शब्द का उच्चारण कर इस संसार से ब्रहम्लोक को प्रस्थान किया

श्री दादू दयाल जी महाराज के द्वारा स्थापित दादू पंथ व दादू पीठ आज भी मानव मात्र की सेवा में निर्विघ्न लीन है। वर्तमान में दादूधाम के पीठाधीश्वर के रूप में आचार्य महंत श्री गोपालदास जी महाराज विराजमान हैं।

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