गुरुदक्षिणा…
गुरुदक्षिणा…
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एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान के लिए पहुंचा, ज्ञान प्राप्ति के बाद शिष्य ने गुरु दक्षिणा में गुरु को कुछ देना चाहा…
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गुरु ने दक्षिणा के रूप में दो चीजें मांगी,एक जो बिलकुल व्यर्थ हो… और दुसरा जो सबसे अनमोल हो। शिष्य सबसे व्यर्थ और सबसे अनमोल चीज की खोज में निकल पड़ा…
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उसने मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया, तो मिट्टी बोल पड़ी…
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तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो या अनमोल ? क्या तुम्हें पता नहीं है कि- इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है ?… मिट्टी से तेरा शरीर बना, मिट्टी से तेरा शरीर का पोषण होता है… एक दिन मिट्टी में तेरा यह शरीर मिल जायेगा… तो मैं व्यर्थ कैसी हुं ?… मैं तो अनमोल हुं…
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ये विविध वनस्पतियां ये रूप,रस और गंध सब कहां से आते हैं ?…मुझसे…
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शिष्य चिंतन किया,पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा, तो वह आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर पर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, इसे ही ले चलूं…
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जैसे ही उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पत्थर से आवाज आई… तुम ज्ञानी हो…तो क्या समझ कर मुझे ले जाना चाहते हो ?…
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तुम अपने भवन और अट्टलिकाएं किससे बनाते हो ? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़ कर देव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं ?…
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यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया…वो जान नहीं पा रहा था कि- सबमें गुण हैं,तो अवगुण किसके पास है ? इनके पास जो भी गुण हैं क्या वह सबसे अनमोल हैं ?… द्वंद्व में चला जा रहा था शिष्य…
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वह सोचने लगा, जब मिट्टी और पत्थर इतने उपयोगी हैं, तो आखिर सबसे व्यर्थ क्या हो सकता है ?…और सबसे अनमोल क्या है ?…
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उसके मन से आवाज आई कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी हैं, तो ऐसा क्या है जो मैं अपने गुरुजी को दक्षिणा में दे सकूं ?
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रास्ते में उसे एक संत मिले, युवक ने उन्हें अपनी बात बताई..
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संत मुस्कराए और युवक से कहा- ऐसा नहीं है व्यर्थ की चीजें सिर्फ वह होती हैं, जिनका सीधे तौर पर आपके जीवन में कोई कार्य नहीं होता…
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बल्कि व्यर्थ की चीजें वह हैं जिनसे किसीका कोई भला नहीं हो सकता…
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वस्तुतः व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही एक ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं है और विश्व का सबसे अनमोल चीज है प्रेम… जिससे सदैव सबका भला ही होता है…
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यह सुनकर शिष्य सीधा अपने गुरुजी के पास गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। वह दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया था… और प्रेम का भिक्षा मांग रहा था… 🙏प्रेम भिक्षां देही…
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गुरुदक्षिणा…
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एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान के लिए पहुंचा, ज्ञान प्राप्ति के बाद शिष्य ने गुरु दक्षिणा में गुरु को कुछ देना चाहा…
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गुरु ने दक्षिणा के रूप में दो चीजें मांगी,एक जो बिलकुल व्यर्थ हो… और दुसरा जो सबसे अनमोल हो। शिष्य सबसे व्यर्थ और सबसे अनमोल चीज की खोज में निकल पड़ा…
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उसने मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया, तो मिट्टी बोल पड़ी…
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तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो या अनमोल ? क्या तुम्हें पता नहीं है कि- इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है ?… मिट्टी से तेरा शरीर बना, मिट्टी से तेरा शरीर का पोषण होता है… एक दिन मिट्टी में तेरा यह शरीर मिल जायेगा… तो मैं व्यर्थ कैसी हुं ?… मैं तो अनमोल हुं…
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ये विविध वनस्पतियां ये रूप,रस और गंध सब कहां से आते हैं ?…मुझसे…
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शिष्य चिंतन किया,पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा, तो वह आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर पर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, इसे ही ले चलूं…
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जैसे ही उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पत्थर से आवाज आई… तुम ज्ञानी हो…तो क्या समझ कर मुझे ले जाना चाहते हो ?…
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तुम अपने भवन और अट्टलिकाएं किससे बनाते हो ? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़ कर देव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं ?…
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यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया…वो जान नहीं पा रहा था कि- सबमें गुण हैं,तो अवगुण किसके पास है ? इनके पास जो भी गुण हैं क्या वह सबसे अनमोल हैं ?… द्वंद्व में चला जा रहा था शिष्य…
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वह सोचने लगा, जब मिट्टी और पत्थर इतने उपयोगी हैं, तो आखिर सबसे व्यर्थ क्या हो सकता है ?…और सबसे अनमोल क्या है ?…
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उसके मन से आवाज आई कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी हैं, तो ऐसा क्या है जो मैं अपने गुरुजी को दक्षिणा में दे सकूं ?
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रास्ते में उसे एक संत मिले, युवक ने उन्हें अपनी बात बताई..
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संत मुस्कराए और युवक से कहा- ऐसा नहीं है व्यर्थ की चीजें सिर्फ वह होती हैं, जिनका सीधे तौर पर आपके जीवन में कोई कार्य नहीं होता…
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बल्कि व्यर्थ की चीजें वह हैं जिनसे किसीका कोई भला नहीं हो सकता…
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वस्तुतः व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही एक ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं है और विश्व का सबसे अनमोल चीज है प्रेम… जिससे सदैव सबका भला ही होता है…
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यह सुनकर शिष्य सीधा अपने गुरुजी के पास गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। वह दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया था… और प्रेम का भिक्षा मांग रहा था… 🙏प्रेम भिक्षां देही…
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गुरुदक्षिणा…
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एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान के लिए पहुंचा, ज्ञान प्राप्ति के बाद शिष्य ने गुरु दक्षिणा में गुरु को कुछ देना चाहा…
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गुरु ने दक्षिणा के रूप में दो चीजें मांगी,एक जो बिलकुल व्यर्थ हो… और दुसरा जो सबसे अनमोल हो। शिष्य सबसे व्यर्थ और सबसे अनमोल चीज की खोज में निकल पड़ा…
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उसने मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया, तो मिट्टी बोल पड़ी…
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तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो या अनमोल ? क्या तुम्हें पता नहीं है कि- इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है ?… मिट्टी से तेरा शरीर बना, मिट्टी से तेरा शरीर का पोषण होता है… एक दिन मिट्टी में तेरा यह शरीर मिल जायेगा… तो मैं व्यर्थ कैसी हुं ?… मैं तो अनमोल हुं…
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ये विविध वनस्पतियां ये रूप,रस और गंध सब कहां से आते हैं ?…मुझसे…
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शिष्य चिंतन किया,पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा, तो वह आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर पर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, इसे ही ले चलूं…
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जैसे ही उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पत्थर से आवाज आई… तुम ज्ञानी हो…तो क्या समझ कर मुझे ले जाना चाहते हो ?…
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तुम अपने भवन और अट्टलिकाएं किससे बनाते हो ? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़ कर देव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं ?…
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यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया…वो जान नहीं पा रहा था कि- सबमें गुण हैं,तो अवगुण किसके पास है ? इनके पास जो भी गुण हैं क्या वह सबसे अनमोल हैं ?… द्वंद्व में चला जा रहा था शिष्य…
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वह सोचने लगा, जब मिट्टी और पत्थर इतने उपयोगी हैं, तो आखिर सबसे व्यर्थ क्या हो सकता है ?…और सबसे अनमोल क्या है ?…
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उसके मन से आवाज आई कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी हैं, तो ऐसा क्या है जो मैं अपने गुरुजी को दक्षिणा में दे सकूं ?
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रास्ते में उसे एक संत मिले, युवक ने उन्हें अपनी बात बताई..
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संत मुस्कराए और युवक से कहा- ऐसा नहीं है व्यर्थ की चीजें सिर्फ वह होती हैं, जिनका सीधे तौर पर आपके जीवन में कोई कार्य नहीं होता…
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बल्कि व्यर्थ की चीजें वह हैं जिनसे किसीका कोई भला नहीं हो सकता…
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वस्तुतः व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही एक ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं है और विश्व का सबसे अनमोल चीज है प्रेम… जिससे सदैव सबका भला ही होता है…
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यह सुनकर शिष्य सीधा अपने गुरुजी के पास गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। वह दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया था… और प्रेम का भिक्षा मांग रहा था… 🙏प्रेम भिक्षां देही…
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