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आजाद हिन्द सरकार गठन की हीरक जयन्ती

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आजाद हिन्द सरकार गठन की हीरक जयन्ती ।

  1. नेताजी का आगमन
    आजाद हिंद फौज के सभी संगठनकर्ताओं को यह बात अत्यंत आवश्यक लग रही थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस दक्षिण पूर्व एशिया में पहुंचकर जल्दी से जल्दी आजाद हिंद फौज का नेतृत्व अपने हाथों में लें । नेताजी का जर्मनी से निकलकर दक्षिण पूर्व एशिया तक पहुंचना अत्यंत खतरनाक था ।
    जिस ढंग से विश्व के देशों का ब्रिटेन और जापान की शक्तियों के बीच विभाजन हुआ था उसके चलते किसी भी देश की सेना के द्वारा नेताजी को मार दिए जाने की आशंका अत्यधिक थी ।

जापानी सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने तो इतना भी कहा था कि यदि नेताजी जर्मनी से चलकर यहां पहुंचते हैं तो उनके जीवित बचने की संभावना मात्र 5 % है । जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस को यह संदेश प्राप्त हुआ तो उन्होंने अपने साथियों का हौसला बढ़ाते हुए कहा कि- ” 5 % तो बहुत अधिक होता है ।

यदि मेरी 100 % मृत्यु की संभावना भी सामने दिखाई देती है तब भी मैं यहां से चलकर आजाद हिंद फौज को ऊर्जा देने का काम करने के लिए तैयार हूँ । नेताजी इस समय तक मैदानी क्षेत्रों पर्वतीय क्षेत्रों और बड़ी – बड़ी नदियों को रौंदकर पवन वेग से लगातार प्रवास कर रहे थे ।

अंततः नेताजी नेताजी सुभाष ने 8 फरवरी सन 1943 को जर्मनी की धरती को प्रणाम करके जापान के लिए प्रस्थान करना तय कर लिया । अपने एक साथी आबिद हसन को साथ लेकर जर्मनी के कील बंदरगाह से जर्मन सरकार की एक पनडुब्बी में सवार होकर उन्होंने समुद्र के गर्भ में ही यात्रा करते हुए जापान पहुंचने का निश्चय किया ।

आश्चर्य की बात यह थी कि पनडुब्बी की यह यात्रा अंग्रेजों के अधिकृत जल पथ से ही संपन्न होनी थी । अंग्रेज सरकार को कानों – कान खबर नहीं लगी और नेताजी को लिए हुए यह पनडुब्बी अफ्रीका का चक्कर लगाते हुए मेडागास्कर से 400 मील दक्षिण में एक अज्ञात स्थान पर पहुंची ।

28 अप्रैल 1943 को नेताजी जर्मनी की इस पनडुब्बी को छोड़कर जापानी पनडुब्बी में सवार हो गए । लगभग 3 माह से अधिक लंबे समय की यह संकटपूर्ण यात्रा पूरी करके 6 मई 1943 को नेताजी सुमात्रा के सबांग बंदरगाह पर उतरे और 11 मई को वहां से वायुयान से 16 मई 1943 को सुरक्षित जापान की राजधानी टोक्यो पहुंच गए ।

3 महीने से अधिक समुद्र गर्भ में संपन्न हुई इस यात्रा के दौरान उनके साथियों ने देखा कि नेताजी एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने थे । जनरल मोहन सिंह के उतावले पन के कारण भारत मुक्ति आंदोलन को जो बड़ा धक्का लगा था उसकी पूर्ति करते हुए जापान की धरती पर जाकर मैं रासबिहारी बोस जी को अधिक उम्र हो जाने के कारण कैसे अब आराम दूं और आजाद हिंद फौज के साथ अधिक से अधिक लोगों को जोड़कर कैसे अपनी सैन्य शक्ति को विस्तार दे सकूं इस की वह सतत योजना बनाते रहे ।

दिन रात का भेद समाप्त हो गया था । नींद उनकी आंखों से कोसों दूर थी । लगातार केवल एक ही योजना कागजों पर उतारते रहते थे कि आजाद हिंद फौज कैसे सफल हो ! और देखते ही देखते भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का यह विद्रोही टोक्यो की धरती पर पहुंचकर शीघ्र ही वहां के इंपीरियल होटल का मेहमान बन गया था ।
पहले तो जापान सरकार ने नेताजी की उपस्थिति को गोपनीय ही रखा किंतु क्रमश : जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो सहित जापान के वरिष्ठ सेना अधिकारियों का नेताजी से मिलना जुलना प्रारंभ हो गया था ।
लोगों को यह पता लगने लगा था कि अब नेताजी शीघ्र ही आजाद हिंद फौज का नेतृत्व संभालने वाले हैं । नेताजी ने 10 जून 1943 को जनरल तोजो से हुई अपनी भेंट में पिछले किसी भी घटनाक्रम के लिए कोई शिकवा शिकायत न करते हुए शीघ्र ही आगामी योजना पर काम करने का आग्रह किया ।

यही इंपीरियल होटल ऐतिहासिक क्षणों का भी साक्षी बना जब भारत माता के 2 सपूत रासबिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस प्रथम बार एक दूसरे से मिलकर भावुक हुए थे । यह प्रथम मिलन इसलिए भी था क्योंकि भारत माता की परतंत्रता को समाप्त करने के लिए जिस समय रासबिहारी बोस भारत छोड़कर जर्मनी गए थे तब सुभाष बच्चे ही थे । जब सुभाष बाबू जर्मनी पहुंचे तब तक रासबिहारी बोस जर्मनी की धरती छोड़कर जापान आ चुके थे ।

यही कारण था कि इंपीरियल होटल में उनकी प्रथम मुलाकात हुई ।
उनके इस प्रथम मिलन के दृश्य को जापान के श्री यामामोटो के शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया गया था मुझे मिस्टर रासबिहारी बोस और मिस्टर सुभाष चंद्र बोस को मिलाने का काम सौंपा गया था । मैं जब रासबिहारी बोस को लेकर सुभाष चंद्र बोस के कक्ष में पहुंचा तो मेरा ह्रदय यह देखकर भर आया कि जिन 2 लोगों ने एक दूसरे को वर्षों से कभी देखा तक नहीं था , वे दोनों मातृभूमि के सेवक प्रसन्नता की अधिकता के कारण एक दूसरे से यूं गले मिल रहे थे मानो वर्षों के बिछड़े हुए भाई गले मिल रहे हों ।
मैं रासबिहारी बोस से इससे पहले अनेक बार मिल चुका था लेकिन उस 1 घंटे की मुलाकात के बाद वे जब कमरे से बाहर निकले तो मुझे लगा कि मैंने उन्हें इतना प्रसन्न कभी नहीं देखा था ।

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