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पुण्यतिथि विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

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5 अप्रैल/पुण्यतिथि विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को ग्राम गंगामूल (जिला मंगलोर, कर्नाटक) में हुआ था। उस समय वहाँ लड़कियांे की उच्च शिक्षा को ठीक नहीं माना जाता था। बाल एवं अनमेल विवाह प्रचलित थे। रमा के विधुर पिता का नौ वर्षीय बालिका से पुनर्विवाह हुआ। उससे ही एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं।

रमा के पिता ने अपनी पत्नी को भी संस्कृत पढ़ाकर विद्वान बनाया। इस पर स्थानीय पंडित उनसे नाराज हो गये। वे उन्हें जाति बहिष्कृत करने पर तुल गये। तब उन्होंने उडुपि में 400 विद्वानों के साथ दो महीने तक लिखित शास्त्रार्थ में सिद्ध किया कि महिलाओं को वेद पढ़ाना शास्त्रसम्मत है। इससे वे जाति बहिष्कार से तो बच गये; पर लोगों का द्वेष कम नहीं हुआ।

उन्होंने अपने सब बच्चों को पढ़ाया। रमा जब नौ साल की थी, तो उनके पिता तीर्थयात्रा पर चले गये। रमा की माँ ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी। जब छह साल बाद रमा के पिता लौटकर आये, तब तक रमा हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बंगला तथा संस्कृत भाषाएँ जान गयी थी।

जब रमा 15 साल की ही थी, तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी। लोगों में द्वेष इतना था कि उनकी अंत्येष्टि के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। इस पर रमा के भाई ने उनके शव को धोती में बाँधकर गाँव से बाहर गाड़ दिया।

कुछ समय बाद माँ की मृत्यु होने पर रमा एवं उसके भाई ने बड़ी कठिनाई से दो लोगों को तैयार किया, तब जाकर माँ का अन्तिम संस्कार हो सका।
इसके बाद रमा अपने छोटे भाई को लेकर कोलकाता आ गयी। वहाँ विद्वानों ने उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें ‘पंडिता रमाबाई’ की उपाधि दी। ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से रमा ने वेदों का और गहन अध्ययन किया।

इसी दौरान उनके भाई की भी मृत्यु हो गयी। रमाबाई का पत्र व्यवहार एवं भेंट आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से भी हुई। महर्षि दयानन्द जी चाहते थे कि रमाबाई पूरी तरह वेद और धर्म प्रचार का कार्य करंे; पर वह इससे सहमत नहीं हुई। वे अभी और पढ़ना चाहती थीं।

22 वर्ष की अवस्था में विपिनबिहारी दास से उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ। एक साल बाद पुत्री मनोरमा के जन्म तथा उससे अगले साल पति के निधन से पुत्री की पूरी जिम्मेदारी रमाबाई पर आ गयी। आर्य समाज से निकटता के कारण ब्रह्मसमाज वाले भी अब उनकी आलोचना करने लगे।

इसके बाद भी रमाबाई नहीं घबराईं। वे पुत्री को लेकर पुणे आ गयीं और आर्य समाज की स्थापना कर समाजसेवा में लग गयीं। उन्होंने महाराष्ट्र के कई नगरों में आर्य समाज की स्थापना की। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें बहुत लोगों से मिलना पड़ता था। कुछ रूढि़वादियों ने इसका विरोधकर उनके चरित्र पर लांछन लगाये। इससे रमाबाई का मन बहुत दुखी हुआ।

1883 में वे चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने इंग्लैंड गयीं। वहाँ उनका सम्पर्क ईसाइयों से हुआ। रमा का मन अपने सम्बन्धियों और विद्वानों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार से दुखी था। अतः उन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार कर लिया।

अब उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखकर बाइबल का इन भाषाओं तथा मराठी में अनुवाद किया। इसके बाद वे अमरीका भी गयीं। वहाँ उन्होंने महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा। इससे वे बहुत प्रभावित हुईं।

ईसाई बनने के बाद भी हिन्दुत्व और भारतीयता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ। 1889 में भारत लौटकर उन्होंने पुणे में ‘शारदा सदन’ नामक विधवाश्रम बनाया। पांच अप्रैल, 1922 को पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया।

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