शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनीय वाजसनेय” शाखामें 40 अध्याय
आइए – हमारे वैदिक वाङ्मयका संक्षिप्त अध्ययन करें। हमारी इस – “शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनीय वाजसनेय” शाखामें 40 अध्याय व 1975 मन्त्र हैं। उन मन्त्रोंका – (केवल हिन्दी) छायानुवाद क्रमशः हम अध्ययन करते चलें………
(इसके पहले जितना भी हुआ है, उससे आगे क्रमशः बाकी – 07 मन्त्रोंका हिन्दी)
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यज्ञके फलसे हमारी आयुमें अभिवृद्धि हो। प्राण तेजयुक्त बलोसे पूर्ण हो। चक्षु और श्रवण इन्द्रियाँ उत्कृष्टतासे अभिपूरित हों। वाणी उत्कृष्ट हो। मन सामर्थ्यवान् हो। आत्मा परम आनन्दमें पूर्ण हो। वेदोंके ज्ञाता (ब्रह्मा) सन्तोषसे परिपूर्ण हों। यज्ञसे ज्योतिर्मान् परम तत्त्वकी प्राप्ति हो। यज्ञसे स्वर्ग प्राप्त हो। स्वर्गिक सुख प्राप्त हो। यज्ञसे यज्ञ उत्कर्षताको प्राप्त हो। स्तुतिके मन्त्र, यजु, ऋक्, साम, बृहत् और रथन्तर भी हमारी अभीष्ट प्राप्तिमें सहायक हों। समस्त देवगण स्वयं प्रयत्नपूर्वक हममें देवत्व स्थापित करके, स्वर्गके अमृतमय सुखोंको प्राप्त कराएँ। हम भी प्रजापति परमात्माकी प्रजारूपमें सुख भोग करें। इसी अभिलाषासे प्रेरित यह विशिष्ट आहुति समर्पित है॥२९॥
अपने दिव्य रसों एवं अन्नसे समस्त प्राणियोंको पोषण देने वाली अखण्ड पृथ्वीकी हम उत्तम स्तुतियोंसे वन्दना करते हैं, उसमें सम्पूर्ण लोक समाविष्ट हैं। सम्पूर्ण जगत् को अपनी दिव्य किरणोंसे प्रेरित करने वाले सवितादेव इस पृथ्वीमें हमारी स्थितिको सुदृढ़ करें॥३०॥
आज हमारे इस यज्ञमें सम्पूर्ण मरुद्गण पधारें। संरक्षण करने वाली समस्त देव सत्ताएँ (विश्वेदेवा आदि) रक्षा साधनों सहित यज्ञमें पधारें। समस्त अग्नियाँ प्रदीप्त हों। हमें महान् ऐश्वर्य व अन्न प्राप्त कराएं॥३१॥
हमारे अन्न, ज्ञान, ऐश्वर्य, पराक्रम आदि चारों लोकों और सातों दिशाओंमें अभिवृद्धिको प्राप्त हों। समस्त दिव्य शक्तियाँ हमारे धन – धान्यकी रक्षा करें॥३२॥
अन्नके अधिष्ठाता देव आप हमें अन्नदानकी प्रेरणा दें। सब देवगणोंको ऋतुओंके अनुकूल हविष्यान्न प्राप्त होता रहे। अन्नदेव हमें (पुत्र – पौत्रादि) वीरोंसे सम्पन्न करें। हम अन्नके अधिपति देवरूपको ग्रहण कर सब दिशाओंमें प्रगति करें॥३३॥
अन्न हमारे आगे और घरोंके मध्य उत्पन्न होता है, अन्न हवियों द्वारा देवगणोंको तृप्त (पुष्ट) करता है। अन्न ही हमें (पुत्र – पौत्रादि) वीरोंसे युक्त करता है। हम अन्नके अधिपति होकर सभी दिशाओंमें प्रगति करें॥३४॥
हे अग्ने! हम इस पृथ्वीपर उपलब्ध होने वाले रसोंको अपने आपसे संयुक्त करते हैं। हम जल और ओषधियोंको भी अपनेसे संयुक्त करते हैं। हम ओषधियों और जल रूपमें पोषक अन्न प्राप्त करते हैं॥३५॥
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