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संत एकनाथ जयन्ती, मीराबाई जयन्ती एवं क्रान्तिकारी भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु बलिदान दिवस

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  संत एकनाथ जयन्ती, मीराबाई जयन्ती एवं क्रान्तिकारी भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु बलिदान दिवस
      संत एकनाथ जयन्ती, मीराबाई जयन्ती एवं क्रान्तिकारी भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु बलिदान दिवस

सन्त एकनाथ एकनाथ (1533 – 1599 ई.) प्रसिद्ध मराठी सन्त जिनका जन्म पैठण में सन्त भानुदास के कुल में हुआ था। इन्होंने सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा प्रवृत्त साहित्यिक तथा धार्मिक कार्य का सब प्रकार से उत्कर्ष किया। ये संत भानुदास के पौत्र थे। गोस्वामी तुलसीदास के समान मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण ऐसा विश्वास है कि कुछ महीनों के बाद ही इनके माता पिता की मृत्यु हो गई थी।

बालक एकनाथ स्वभावत: श्रद्धावान तथा बुद्धिमान थे। देवगढ़ के हाकिम जनार्दन स्वामी की ब्रह्मनिष्ठा, विद्वत्ता, सदाचार और भक्ति देखकर भावुक एकनाथ उनकी ओर आकृष्ट हुए और उनके शिष्य हो गए। एकनाथ ने अपने गुरु से ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का अध्ययन किया और उनका आत्मबोध जाग्रत हुआ। गुरु की आज्ञा से ये गृहस्थ बने।

एकनाथ अपूर्व सन्त थे। प्रवृत्ति और निवृत्ति का ऐसा अनूठा समन्वय कदाचित् ही किसी अन्य संत में दिखाई देता है। आज से लगभग 675 वर्ष पूर्व इन्होंने मानवता की उदार भावना से प्रेरित होकर अछूतोद्धार का प्रयत्न किया।

ये जितने ऊँचे सन्त थे उतने ही ऊँचे कवि भी थे। इनकी टक्कर का बहुमुखी सर्जनशील प्रतिभा का कवि महाराष्ट्र में इनसे पहले पैदा नहीं हुआ था। महाराष्ट्र की अत्यंत विषम अवस्था में इनको साहित्यसृष्टि करनी पड़ी।

मराठी भाषा, उर्दू-फारसी से दब गई थी। दूसरी ओर संस्कृत के पंडित देशभाषा मराठी का विरोध करते थे। इन्होंने मराठी के माध्यम से ही जनता को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया।

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु 23 मार्च,1931 बलिदान दिवस

23 मार्च,1931 को अंग्रेज़ी सरकार ने भारत के तीन सपूतों – भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया था. स्वतंत्रता की लड़ाई में स्वयं को देश की वेदी पर चढ़ाने वाले यह नायक हमारे आदर्श हैं.

शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ था.14 वर्ष की आयु में ही भगतसिंह ने सरकारी स्कूलों की पुस्तकें और कपड़े जला दिये थे.

महात्मा गाँधी ने जब चौरीचौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने की घोषणा की तो भगतसिंह का अहिंसावादी विचारधारा से मोहभंग हो गया. उन्होंने 1926 में देश की आज़ादी के लिए नौजवान भारत की स्थापना की.

हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ चिन्तक और विचारक भगतसिंह भारत में समाजवाद के पहले व्याख्याता थे. भगतसिंह अच्छे वक्ता, पाठक और लेखक भी थे. उन्होंने अकाली और कीर्ति नामक दो अखबारों का सम्पादन भी किया.

जेल में भगतसिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की. उनके एक साथी यतीन्द्र नाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे.

भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था. इसके पश्चात् उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना सन्देश दुनिया के सामने रखा.

उनकी गिरफ्तारी के पश्चात् उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या का मुकदमा चला. लगभग दो वर्ष मुकदमा चलने के पश्चात् 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव, तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई.

शहीद सुखदेव : सुखदेव का जन्म 15 मई,1907 को पंजाब के लायलपुर में हुआ जो अब पाकिस्तान में है. भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहने से दोनों वीरों में गहरी दोस्ती थी तथा साथ ही दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे. साण्डर्स हत्याकाण्ड में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव साथ थे.

शहीद राजगुरु : 24 अगस्त,1908 को पुणे जिले के खेड़ा में राजगुरु का जन्म हुआ. शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लाला लाजपत राय के विचारों से भी प्रभावित थे.

पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसम्बर,1928 को भगतसिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज़ सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी साण्डर्स को गोली मार दी थी और स्वयं ही गिरफ्तार हो गये थे.

ऐसे भारत माता के सपूत वीर क्रान्तिकारी शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान दिवस पर देश उन्हें कोटि-कोटि नमन् करता है.

  • मीराबाई 23 मार्च,1498 जयंती

भारत का राजस्थान प्रान्त वीरों की खान कहा जाता है; पर इस भूमि को श्रीकृष्ण के प्रेम में अपना तन-मन और राजमहलों के सुखों को ठोकर मारने वाली मीराबाई ने भी अपनी चरण रज से पवित्र किया है। हिन्दी साहित्य में रसपूर्ण भजनों को जन्म देने का श्रेय मीरा को ही है। साधुओं की संगत और एकतारा बजाते हुए भजन गाना ही उनकी साधना थी। मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई..गाकर मीरा ने स्वयं को अमर कर लिया।

मीरा का जन्म मेड़ता के राव रत्नसिंह के घर 23 मार्च, 1498 को हुआ था। जब मीरा तीन साल की थी, तब उनके पिता का और दस साल की होने पर माता का देहान्त हो गया। जब मीरा बहुत छोटी थी, तो एक विवाह के अवसर पर उसने अपनी माँ से पूछा कि मेरा पति कौन है ? माता ने हँसी में श्रीकृष्ण की प्रतिमा की ओर इशारा कर कहा कि यही तेरे पति हैं। भोली मीरा ने इसे ही सच मानकर श्रीकृष्ण को अपने मन-मन्दिर में बैठा लिया।

माता और पिता की छत्रछाया सिर पर से उठ जाने के बाद मीरा अपने दादा राव दूदाजी के पास रहने लगीं। उनकी आयु की बालिकाएँ जब खेलती थीं, तब मीरा श्रीकृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख बैठी उनसे बात करती रहती थी। कुछ समय बाद उसके दादा जी भी स्वर्गवासी हो गये। अब राव वीरमदेव गद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरा का विवाह चित्तौड़ के प्रतापी राजा राणा साँगा के बड़े पुत्र भोजराज से कर दिया। इस प्रकार मीरा ससुराल आ गयी; पर अपने साथ वह अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की प्रतिमा लाना नहीं भूली।

मीरा की श्रीकृष्ण भक्ति और वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक बीत रहा था। राजा भोज भी प्रसन्न थे; पर दुर्भाग्यवश विवाह के दस साल बाद राजा भोजराज का देहान्त हो गया। अब तो मीरा पूरी तरह श्रीकृष्ण को समर्पित हो गयीं। उनकी भक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल गयी। दूर-दूर से लोग उनके दर्शन को आने लगे। पैरों में घुँघरू बाँध कर नाचते हुए मीरा प्रायः अपनी सुधबुध खो देती थीं।

मीरा की सास, ननद और राणा विक्रमाजीत को यह पसन्द नहीं था। राज-परिवार की पुत्रवधू इस प्रकार बेसुध होकर आम लोगों के बीच नाचे और गाये, यह उनकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध था। उन्होंने मीरा को समझाने का प्रयास किया; पर वह तो सांसारिक मान-सम्मान से ऊपर उठ चुकी थीं। उनकी गतिविधियों में कोई अन्तर नहीं आया। अन्ततः राणा ने उनके लिए विष का प्याला श्रीकृष्ण का प्रसाद कह कर भेजा। मीरा ने उसे पी लिया; पर सब हैरान रह गये, जब उसका मीरा पर कुछ असर नहीं हुआ।

राणा का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने एक काला नाग पिटारी में रखकर मीरा के पास भेजा; पर वह नाग भी फूलों की माला बन गया। अब मीरा समझ गयी कि उन्हें मेवाड़ छोड़ देना चाहिए। अतः वह पहले मथुरा-वृन्दावन और फिर द्वारका आ गयीं। इसके बाद चित्तौड़ पर अनेक विपत्तियाँ आयीं। राणा के हाथ से राजपाट निकल गया और युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी।

यह देखकर मेवाड़ के लोग उन्हें वापस लाने के लिए द्वारका गये। मीरा आना तो नहीं चाहती थी; पर जनता का आग्रह वे टाल नहीं सकीं। वे विदा लेने के लिए रणछोड़ मन्दिर में गयीं; पर पूजा में वे इतनी तल्लीन हो गयीं कि वहीं उनका शरीर छूट गया। इस प्रकार 1573 ई0 में द्वारका में ही श्रीकृष्ण की दीवानी मीरा ने अपनी देहलीला समाप्त की।

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