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क्रांतिकारी यतींद्र नाथ 13 सितम्बर बलिदान दिवस.

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क्रांतिकारी यतींद्र नाथ 13 सितम्बर बलिदान दिवस.

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी अथवा बाघा जतीन का जन्म 7 दिसम्बर, 1906 को हुआ था। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ एक बंगाली क्रांतिकारी थे. इनकी अल्पायु में ही इनके पिता का देहांत हो गया था. इनकी माता ने घर की समस्त ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उसे बड़ी सावधानीपूर्वक निभाया.

यतीन्द्रनाथ मुखर्जी के बचपन का नाम ‘जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय’ था. अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार देने के कारण ये ‘बाघा जतीन’ के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये थे. जतीन्द्रनाथ ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे.

उन दिनों क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था. दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए. विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें!

अमृत सरकार ने जतींद्र नाथ से कहा कि धन लेकर भागो. जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- ‘मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें. इन डकैतियों में ‘गार्डन रीच’ की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता यतींद्र नाथ मुखर्जी थे.

पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा ‘काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला. यतींद्र बाबू साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की. बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए यतींद्र नाथ ने गोली चला दी. राज महन्ती वहीं ढेर हो गया.

यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दिया गया. किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा. यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था. जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे. चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था. दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली. चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया.

वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे. इसी बीच यतींद्र नाथ को गोली लगी और वह जमीन पर गिर कर ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे. मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा. तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया. गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे. बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं.

जब इन्हें लाहौर जेल ले जाया गया तब वहाँ जेल में भगत सिंह भी थे. तब पूरा देश इन्हें देख रहा था. भगत सिंह ने कहा कि हमारे साथ राजनीतिक कैदियों सा व्यवहार किया जाये. अंग्रेज़ों ने बात नहीं मानी. फिर आज़ादी के इन परवानों ने जेल में अनशन शुरू कर दिया.

इनका अनशन तोड़ने के लिए अंग्रेज़ी सरकार ने बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी जिद के आगे सब बेकार था.

सोलह-सोलह सिपाहियों ने मिलकर उनकी नाक में खाना डालना चाहा, मगर वे तो चट्टान थे, आख़िरकार लम्बे अनशन के बाद 13 सितम्बर 1929 को यतीन्द्र नाथ बोस जेल में ही शहीद हो गये.

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