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उपासना और भक्ति का महत्व

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उपासना और भक्ति का महत्व

सभी धर्मों में उपासना और भक्ति का महत्व है। उपासना से निःसन्देह हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है। उपासना का अर्थ है प्रभु के समीप बैठना, निराकार ईश्वर की संगति में बैठना।

ईश्वर की संगति मनुष्य को पवित्र करती है। यह उपासना से ही मिलती है। इसके लिए ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव को जानना जरूरी है। सत्य, न्याय, दया, संयम, ज्ञान, बल, तप आदि उसके अनेक गुण हैं। जब उपासक मन की आँखों से ध्यान में बैठकर गुण-स्वरूप ईश्वर का चिंतन करता है, तब प्रभु उसके चारों तरफ ओत-प्रोत दिखाई देते हैं और भक्त प्रभु के गुणों के चिंतन में लीन हो जाता है। यह चिंतन ही उसे मानसिक रूप से प्रभु के पास ले जाता है। उसमें भी प्रभु के गुण आने लगते यहाँ से उसकी पवित्र प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।

वेदों का स्वाध्याय, वैदिक विचारों का चिंतन, सत्संग, सन्ध्या, ध्यान आदि उपासक की उपासना में सहायता करते हैं। उसमें सांसारिक कष्ट-क्लेश से मुक्ति में रुचि पैदा होती है। प्रभु के गुणों के चिंतन में आनन्द आता है। फलस्वरूप, जब वह अपना निरीक्षण करता है तो पाता है कि वह तो ईश्वर के पवित्र गुणों के विपरीत असत्य, अन्याय, अज्ञान आदि दुर्गुणों से भरा है। तब वह अपने कर्मों में पवित्रता लाने का संकल्प लेता है, प्रयास करता है और धीरे-धीरे उसके जीवन में उन्नति होती जाती है। दुर्गुण हटते जाते हैं, सद्गुण आते जाते हैं, बुद्धि सूक्ष्म होती जाती है। जो निराकार प्रभु की संगति में बैठकर उपासना नहीं करता, उसके गुण धारण नहीं कर सकता, उसको उपासना का कोई लाभ नहीं होता है।

प्रभु हमारे कर्म और आचरण को देखता है शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार फल देता है। अतः उपासना से हम अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं।

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