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भरत चरित:24 !!बड़भागी भरत, अनुरागी भरत!!

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भरत चरित:24 !!बड़भागी भरत, अनुरागी भरत!!
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जब मंथरा जैसे कुटिल लोग स्वयं को निर्दोष कहेंगे तो क्या होगा??

“आह दइअ ” मैं काह नसावा ?।
करत नीक, फलु अनइस पावा???।।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन , धरि धरि झोंटी।।

शत्रुघ्ण जी के जोरदार लात प्रहार से पृथ्वी पर गिरी हुई दुष्ट बुद्धि मंथरा के मुख से ऐसी वाणी निकली कि जैसे उससे सीधा सादा और उससे ज्यादा निःस्वार्थ भाव वाले संसार में कोई और नहीं है। सारा कुचक्र रच कर अयोध्या को बर्बाद कर वह शत्रुघ्ण जी के जोरदार लात प्रहार पर बिधाता को स्मरण करती है।
“आह दइअ”! मैं काह नसावा?- वह कहती है कि कि – हाय रे दैव (ब्रह्मा जी) ! मैं किसका क्या बिगाड़ी थी?
मतलब मंथरा के कहने का तात्पर्य है कि जिसे मुझे वंदन करना चाहिए क्योंकि इसे (शत्रुघ्ण को) मैं दास के दास के स्थान पर युवराज बना दी और यही मुझे मार रहा है।
और ऐसे भी मैंने सयानी कौशल्या के साजिश असफल की है, अतः मैंने कोई गलती नहीं की है। अरे अभागों! मैंने तुम्हारे लिए- करत नीक फलु अनइस पावा- बहुत बड़ा उपकार की है और मुझे मुँह मीठा करने के बदले सजा देने लगे??
अरे अभागे! कान खोलकर सुन लो कि यदि राम राजा बन जाता तो उसके आगे पीछे करने वाला लक्ष्मण युवराज बनता। भरत बंदी गृह में रहता तो सोचो तुम कहाँ रहता(भरत बंदी गृह सेइअहि लखन राम के नेब)।
“हाय रे बिधाता! सचमुच में भलाई का जमाना नहीं रहा “!!!!
अरे मैं आज दासी और आगे भी दासी, अतः इसमें मेरा क्या स्वार्थ है!!!
सुनि रिपुहन -“लखि नख सिख खोटी-” दुष्ट मंथरा के बातों को सुनकर और उसे नख से सिर तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्ण जी उसे मार डालने की निश्चय करते हैं।
लगे घसीटन धरि धरि झोंटी- ( स्त्री के उलझे हुए पके बाल को अवधी, भोजपुरी भाषा में झोंटी या झोंटा कहा जाता है, जिससे स्त्री प्रेत सा दिखाई देती है।)
मंथरा भले ही सुंदर वस्त्राभूषण पहन रखी थी लेकिन उसके प्रेत समान बाल थे(झोंटी) जिसे हाथों से पकड़ कर शत्रुघ्ण जी उसे पृथ्वी पर घसीटने लगे। जरा विचार किया जाय कि यदि स्त्री के बाल पकड़ कर इस तरह जमीन पर खींचा जाय तो कितना दर्द होगा??
वह जब भोली भाली कैकेई को गुमराह कर रही थी तो बहुत झूठ बोली- यहाँ गुपचुप तरीके से एक पखवाड़े से राम को राजा बनाने की तैयारी चल रही है। स्वयं महाराज कौशल्या संग इस साजिश में शामिल हैं। … यदि मैं आपसे असत्य कहूँगी तो ब्रह्मा जी मुझे सजा देंगे- जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि मोहि सजाई।। जब बिधि स्वरूप शत्रुघ्ण जी उसे पृथ्वी पर घसीट रहे हैं तो उसे विधाता याद आ गए- “आह दइअ! मैं काह नसावा??
गलती स्वयं करो और पकड़े जाने पर विधाता को दोष दो ,यह सामान्य व्यवहार है।
भैया लोग! ये शास्त्र कथन है कि यदि किसी ने बहुत ज्यादा पाप किया है या बहुत पुण्य कार्य किया है तो उसे इसी जन्म में उसका फल भोग करना पड़ता है-
“अत्युग्र पाप- पुण्यानां इहैव फलमश्रुते “!!!
शत्रुघ्ण जी दुष्ट मंथरा को पृथ्वी पर घसीट कर लहुलुहान कर दिए और लगा कि वह मर जाएगी तो उसकी स्थिति पर भरत जी को दया आ गई।
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई – जैसे श्रीराम जी दयालु उसी तरह भैया भरत जी , अतः पापिनी मंथरा पर उन्हें दया आ गई और उसे शत्रुघ्ण जी के हाथ से मुक्त कर दिए। वे क्रोधित शत्रुघ्ण को श्रीराम स्वभाव स्मरण करा कर किसी तरह शांत किए कि यदि तुम इसे मार डालोगे तो श्रीराम जी अप्रसन्न होंगे। मुझे भी कैकेई को मार डालने का मन करता है लेकिन श्रीराम जी इस पापिनी को माता कहे हैं। भले ही- माता स्यात् माननांच सा ,अर्थात् मान देने योग्य को”माता” कहते हैं लेकिन यदि श्रीराम जी कह दिए तो कह दिए(मृषा न होइ मोर यह बाना)
अब भरत जी को माता कौशल्या जी स्मरण होती हैं और उन्हें लगा कि इस विपत्ति में श्रीराम माता ही मुझे आश्रय दे सकती हैं न तो ये दुष्ट कैकेई मेरे लिए”कुमाता”हो गई है। अतः..
कौशल्या पहिं गे दोउ भाई- भरत शत्रुघ्ण दोनों भाई भारी विषाद ग्रस्त हुए माता कौशल्या जी के पास गए तो उनकी दुर्दशा देखकर स्तब्ध रह गए!!! वे पहले जिन्हें सुंदर वस्त्राभूषण से सुसज्जित देखते थे वही माता कौशल्या जी बहुत मैले वस्त्र धारण किए हुई हैं- मलिन बसन ! हे विधाता! ये हम क्या देख रहे हैं!!!
बिबरन बिकल – माता कौशल्या जी के मुख निस्तेज है और वह बहुत ज्यादा व्याकुल लग रही हैं।
कृस शरीर- उनका शरीर बिल्कुल दुबला पतला.और कमजोर है।
दुख भार- उनको दूर से ही देखने पर लगता है कि उनके उपर दुख के पहाड़ टूट पड़ा है और वे उस भारी दुख से दब गई हैं। भरत जी जब अयोध्या से अपने मामा जी के घर पर जा रहे थे तब के कौशल्या जी के शरीर और अभी के स्थिति में अंतर का अनुमान लगाने लगे तो बहुत ज्यादा अंतर है।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुषार- (तुषार- भारी जाड़े के पाला, हनी – मार दिया है, कनक कलप बर बेलि- सुवर्ण समान सुंदर श्रेष्ठ कल्प लता पर)
जब भरत जी अपने मामा जी के घर पर जा रहे थे तो उस समय कौशल्या जी के लिए वसंत ऋतु के दिन था और आज कौशल्या जी की ऐसी स्थिति है जैसे जाड़े की रात में सुवर्ण लता पर भारी बर्फबारी से वह बर्बाद हो जाती है।
माता कौशल्या जी के दीन मलीन दशा देखकर भरत शत्रुघ्ण जी महल के दरवाजा पर ही ठिठक गए। उनमें महल में प्रवेश करने के हिम्मत ही नहीं रही और मन ही मन विधाता से कहते हैं कि-
“हाय रे बिधाता! तूने ये क्या किया”!!!!
तुम कितने निष्ठुर हो विधाता!!!!

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